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उस सड़े मांस के ढेर में से सूखे डण्ठल-सा एक हाथ उठा ।
'आह, आह, मेरी सावित्री, पिलाओ अमृत ...'
और वरुण ने वह ऊष्म सुगन्धित आँचल पकड़ लेना चाहा । हुता दूर छिटक गई। और उसने क्षण मात्र में औषधि का चम्मच रोगी के आकारहीन चेहरे में खुले एक गड्ढे में उँडेल दिया ।
'ओह, कैसी सुगन्ध है तुम्हारे आँचल में, हुता !
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जलजूही की लतासी शीतल । मेरे पास आओ हुता, मुझे ढाँप लो न अपनी छाती में, जहाँ मृत्यु नहीं है, सदा अमृत झरता है । और मुझे छिन छिन यह काल का नाग डस रहा है।''तुमने आँचल क्यों छुड़ा लिया मेरे हाथ से, हुता ? तुम तुम... ...मेरी सावित्री ! तुम इतनी निर्मम कैसे हो गई ? ....
एक घुटन भरे सन्नाटे में उखड़ती साँसों की खड़खड़ाहट ।
'ऐसा न बोलो स्वामी, मैं अब समग्र तुम रूप हो जाना चाहती हूँ । तुम से अलग अब क्षण भर चैन नहीं । अब केवल आँचल देकर जी नहीं भरता । अपनी इस पूरी काया में तुम्हारे हंस को खींच लेना चाहती हूँ ।'
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'आह हुता, तुम तुम मेरी हो न, केवल मेरी, त्रिकाल में, जन्मान्तरों में एकमात्र मेरी कभी और किसी की नहीं ?'
'हाँ, मेरे देवता, मेरे सत्यवान, केवल तुम्हारी, सिर्फ तुम्हारी । और किसी की नहीं । आदिकाल से अनन्तकाल तक तुम्हारी ! '
'मेरी आत्मा तुम, हुता ! '
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'तो आज खींच लो मुझे समूचा अपने में, अब बाहर नहीं रहा जाता । हुता कहाँ हो तुम । पास आओ न मेरी साँसों में आओ..! '
'इस देह से कितनी-कितनी पास आई तुम्हारे । पर क्या तुम्हारे भीतर आ सकी ? क्या तुम मेरे भीतर आ सके ? सो इस देह का ममत्व न करो । मैं अखण्ड ब्रह्मचर्य का व्रत धारण कर तुम्हारी देह में अमृत सींच देने की साधना कर रही हूँ !
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'आह मेरी सती, मेरी सावित्री । अरे देखो न, मेरी धुंधली पुतलियों में यह कैसी जोत उजल गयी है । तुम सोलहों सिंगार किये आज कितनी सुन्दर लग रही हो ! साक्षात् देवी, भगवती । ऐसा शृंगार तो तुमने कभी किया नहीं । अपूर्व है तुम्हारा यह सोहागन रूप । पहली बार देखा । ये इतने महद्धिक वस्त्र - रत्नालंकार कहाँ से आ गये ? '
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