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________________ ." और नगर द्वार पार कर, एक सुनसान उजड़े उद्यान में आ पहुंचा हूँ। मनमारे खड़े एक अंधियारे भग्न-भवन में चला आया है। यहाँ मनुष्य के होने का कोई चिह्न नहीं। ऊपर तिमंज़िले के एक अर्द्ध-भग्न जर्जर कक्ष में उपस्थित हूँ। आले में एक माटी की ढिबरी जल रही है। उसके बहुत क्षीण आलोक में दीखा : एक झोली-सी लगती खटिया में जैसे एक सड़े मांस का ढेर पड़ा है। लेकिन उसके तल में अवश पड़ा एक मानव-मन गहरे सोचविचारों में चक्कर काट रहा है : 'ओ... ओ... मेरी प्राण हुता, तुम तुम कहाँ चली गईं ?..आह, याद आ रही है सुदूर अतीत की वह बात। इसी सामने की गंगा के एक दूरान्तिक तट में, अपनी कुटिया में तुम अकेली रहती थीं। मैं काशी का राजपुत्र वरुण, उस तट पर मगर का आखेट करने आया करता था। तुम अनाथ एकाकिनी ऋषि-कन्या थीं। "सुना था, अपने स्वप्न के सत्यवान को पाने के लिये तुम कठोर सावित्री-तप कर रही थीं। इसी गंगा की जलधारा-सा पारदर्श, पवित्र था तुम्हारा सौन्दर्य । भयानक मगर-मच्छ तक तुम्हारे तप से, तुम्हारे वशीभूत हो गये थे । ___'और मैं काशी का राजपुत्र वरुण किसी सावित्री का सपना देख रहा था। तुम्हारे रूप में अपना वह स्वप्न मैंने साकार देखा। मैंने महल, राजश्यर्व, सिंहासन ठुकरा दिया, और तुम्हें प्राप्त करके ही चैन लिया। .. . 'निर्वासित राजपुत्र को इस उजड़े उद्यान के भूतिहा भवन में नज़र-कैद कर दिया गया। लेकिन तुम्हारे साथ, हुता। "तुम्हें जब आलिंगन में बाँधता था तो लगता था, कि रोग, क्षय, जरा, मृत्यु को मैंने जीत लिया है। मैं मृत्युंजय हो गया हूँ, तुम्हारी गोद में ! ... _ 'लेकिन तुम्हारे होते, यह क्या हुआ हुता; मैं इस महादुष्ट गलित कुष्ठ का ग्रास बन गया। रक्त-पीव का बहत्ता पनाला। मेरी आँखों के रतन भी धीरे-धीरे धुंधला गये। एक भृत्य मेरी सेवा में निरत रहने लगा। ...और तुम ? सुना, तुम फिर सावित्री-तप में लीन हो एकाग्र, मुझे पुनर्जीवित करने के लिये ।" ____ 'आह, तुम जब अपनी गोरी उजली बाँह से मुझे कड़वी औषध पिलाती हो, तो लगता है, अमृत पिला रही हो। पर अब तो केवल तुम्हारी वह मोहिली, महीन आवाज़ भर सुन पाता हूँ। तुम्हारी वह कमनीय बाँह कहाँ गई...? आह, असह्य है इन अविराम झरते ज़ख्मों की पीड़ा। "हुता'तुम कहाँ चली गयीं ?' 'देखो न मैं आ गई। भिषग का भृत्य औषधि लेकर आया था, वही तैयार कर लायी हूँ।' . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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