SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 319
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ . ऐसा लग रहा है, कि इस द्वैत का निराकरण किसी अद्वैत में भी नहीं है। वह भी एक शाब्दिक विकल्प या धारणा ही तो है। शुद्ध आत्मानुभूति में न द्वैत है, न अद्वैत । बस, जो यथार्थ में है, वही है, जिसकी परिभाषा सम्भव नहीं। परिभाषा मात्र विकल्प है। । इन अनेक जीवात्माओं की कषाय-क्लिष्ट चेतना के प्रति मैं दया और करुणा से भर-भर आया हूँ। और यह दया और करुणा भी क्या द्वैतभाव ही नहीं है ? पूर्ण वीतराग हुए बिना, पूर्ण प्रेम और पूर्ण एकत्व में अवस्थिति कैसे सम्भव है ? मैं और वह का विकल्प जब तक है, तब तक सब के साथ सूक्ष्म राग तो बना ही हुआ है। फिर चाहे वह कितना ही सात्विक और मांगलिक क्यों न हो। और जब तक यह राग. है, तब तक विच्छेद और अलगाव है ही। यह राग संवेदन है, स्पन्दन है, उत्स्फुरण है। इसके रहते चैतन्य में विक्षोभ और विकल्प का चांचल्य रहेगा ही। यह सम्वेदन जब तक पूर्ण ज्ञान से प्रकाशित न हो उठे, तब तक सर्व के साथ सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्य में अवस्थित नहीं हुआ जा सकता। अपने आत्म-परिणामों को इस क्षण प्रत्यक्ष देख रहा हूँ। कर्मोदय से जो राग-द्वेषात्मक भाव उत्पन्न होते हैं, उस विक्षोभ से मैं बेशक आगे जा चुका हूँ। सात्विक वृत्तियों के संवेग के कारण जो कर्म-बीज का निपट तात्कालिक उपशमन होता है, उस क्षणिकता में भी मेरे परिणाम बद्ध नहीं हैं। तीव्र वीतरागता के उदय से कभी-कभी अपने अनादि कर्म-मल का विपल मात्र में क्षय होना भी अनुभव किया है। पर निःशेष कर्म-मल की निर्जरा तो हुई नहीं। तब यह क्षायिक भाव भी आत्मा की एक गुज़रती अवस्था से अधिक न हो सका । क्षयोपशमिक भाव में ही अब भी यात्रा चल रही है। कुछ कर्म मात्र उपशमित हो रहते हैं, तो कुछ कर्म झड़ जाते हैं। क्षय और उपशम की यह एक मिली-जुली अवस्था-सी है। इन सारी अवस्थाओं से परे जो आत्म-स्थिति है, उसकी बारम्बार झलक पा कर भी, उसकी अन्तर-मुहूर्त अनुभूति में स्तब्ध होकर भी, फिर अवस्था विशेष में अवरूढ़ हो जाना होता है। ___ कर्मों के उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम से परे की वह आत्म-स्थिति कैसे उपलब्ध करूँ, जिसमें बिना किसी बाह्य निमित्त के, बिना किसी निम्न या ऊर्ध्व प्रतिक्रिया के, एक शुद्ध बेशर्त, निसर्ग परिणमन में ही अवस्थान हो जाये। एक ऐसी महाभाव-स्थिति, जिसमें दर्शन, ज्ञान, सुख और वीर्य नितान्त स्वतंत्र होकर, एक विशुद्ध और अकारण आत्मोर्जा के रूप में मेरे भीतर रमणशील रहें। एक ऐसा बेशर्त निनैमित्तिक आत्म-रमण और अन्तमथुन, जिसमें बिना किसी चाह, विकल्प या बाहरी क्रिया के भी, जीव मात्र और पदार्थ मात्र के साथ, एक निरन्तर मिलन-मैथुन अन्तहीन हो जाये। उस शुद्ध पारिणामिक भाव को कैसे उपलब्ध हुआ जाये? Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy