SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 318
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०८ हर सम्मुख आने वाले जीवात्मा के जन्म-जन्मान्तरीण अन्धकारों में संक्रमण और अतिक्रमण किया है। मेरे उस सम्पूर्ण आत्मदान से, पूर्वजन्म की अनेक सम्बन्धित आत्माओं की जनम-जनम की ग्रंथियाँ उन्मोचित हुई हैं, मेरे और उनके बीच के कर्मावरण की अनेक अभेद्य दीवारें टूटी हैं। एक महाभाव प्रेम के भीतर उनके साथ, निरवछिन्न मिलन की अनुभूति हुई है। लेकिन फिर भी क्या उनके और मेरे बीच वह मुक्ति घटित हो सकी, जिसके बाद कोई भी ग्रंथि या आवरण शक्य न रह जाये ? क्या अन्तिम ग्रंथि का मोचन हो गया, क्या अन्तिम आवरण हट गया ? पहले ही दिन अपने बैल के गुम हो जाने पर, अपनी रस्सी को तिहरी बँट कर मुझे कोड़े मारने वाला ग्वाला हो, कि शूलपाणि यक्ष हो, कि संगम देव हो, कि सुदंष्ट्र नागकुमार हो, कि कटपूतना बाण-व्यन्तरी हो, कि अन्तिम बार शूलों से आरपार मेरा कर्णवेध और मस्तकभेद करने वाला गोपाल हो, निश्चय ही इन सभी की जनम-जनम की कषाय-ग्रंथियों का मोचन हुआ है। इन सभी के मनों में, मेरे प्रति जो चिरकाल की वैराग्नि जल रही थी, उसका शमन भी निःसन्देह हुआ है। इन सभी की क्षमा और प्रीति भी मुझे सदा को प्राप्त हो गई है। अपने जी की बात, अपना प्यार इनकी आत्माओं तक पहुँचाने में भी शायद मैं यत्किचित् सफल हुआ हूँ। फिर भी क्या त्रिलोक और त्रिकाल में इनके साथ मैं निरवछिन्न-रूप से घटित हो सका हूँ? क्या इनके साथ मेरा सम्वाद और सम्प्रेषण अव्याहत हो सका है ? लगता है कि इनके और मेरे बीच अब भी कोई ऐसा अपरिभाषेय रिक्त बना है, जिसकी सम्पूर्ति अभी नहीं हो सकी है। सर्वकाल और सर्वदेश की असंख्य कोटि आत्माओं के साथ अभी जैसे पूर्ण ज्ञानात्मक सायुज्य उपलब्ध नहीं हो सका है। अपने को अणुमात्र भी तो बचाकर नहीं रक्खा है। अपनी इस देह को तिल-तिल हवन हो जाने दिया है। फिर भी सदेह जैसे मृत्यु का समुद्र तैर गया हूँ। बारम्बार एक अनाहत, अव्याबाध जीवन जीने की अनुभूति भी हुई है। फिर भी क्या कारण है कि एक अफाट शून्य में आज अकेला छूट गया हूँ ? ""मैं मैं मैं। वह वह वह। इस चिरन्तन् द्वैत से कहां निस्तार है। क्या यह सतर्कता अब भी मुझ में नहीं है, कि मैं हूँ कोई विशिष्ट पुरुष महावीर ? जिसने अपने जनम-जनम के बैरियों को खोज कर, उन्हें अपने प्रेम और क्षमा से जय किया है। कि मैं इन सब का तरणोपाय बना हूँ। कि मैं त्राता हूँ, सर्व का परित्राता हूँ। सर्व परित्राण के लिये ही मेरा अवतरण हुआ है। क्या मेरे इस अहम् का निर्मूलन हो सका है ? और यह अहम् जब तक अणु मात्र भी शेष है, तब तक सर्व के और मेरे बीच की अन्तिम खन्दक कैसे पट सकती है? वह नहीं पट सकी है, इसीसे तो इस शून्य में इतना अकेला छुट गया हूँ। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy