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________________ ३१० जब तक उस मुकाम पर न पहुँच जाऊँ, तब तक मेरे सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, दया, सहानुभूति, करुणा, प्रेम, खण्डित और अपूर्ण ही रहेंगे। ये सब संवेदन हैं, प्रवृत्तियाँ हैं जो पर-निर्भर हैं, इसी कारण द्वैत और विकल्प से ग्रस्त हैं। ये सब अहम्जन्य मन की उदात्त अवस्थाओं से अधिक नहीं। इनका प्रतिकल्प और प्रतिलोम कहीं है ही। ऐसा लगता है, कि मेरे इस ऊर्ध्वमुख संवेदन को ही, नितान्त ज्ञान हो जाना पड़ेगा। चरम सम्वेदन की परम परिणति पूर्णज्ञान में हुए बिना रह नहीं सकती। सम्वेदन नहीं, शुद्ध आत्मवेदन चाहिये । वही आत्मज्ञान है। पूर्ण आत्मज्ञान बिना, पूर्ण सर्वज्ञान सम्भव नहीं दीख रहा। 'मैं कौन हूँ ?' का उत्तर, अनेक प्रसंगों में, और अनेक चेतना-स्तरों पर सम्यक् रूप से पाया है। पर क्या वह उत्तर मैं स्वयम् हो सका हूँ? तब तक कैसे कहूँ, कि ठीक जान गया हूँ, कि मैं कौन हूँ। मेरा आत्मबोध अभी दूसरों के साथ घटित होने पर निर्भर करता है, वह अकारण स्वतःस्फूर्त अखण्ड अनुभूति की लौ नहीं हो सका है। ___..अभी कल तक भी, क्या श्रेणिक के साथ एक उद्बोधनात्मक प्रतिक्रिया में ही घटित नहीं हो रहा था? श्रेणिक, और उससे जुड़ी हैं चेलना, नन्दा, कोसला, क्षेमा, आम्रपाली, सालवती। उससे सम्बद्ध आर्यावर्त की सारी ही नगर-वधुएं, दूर-दूरान्त के सारे देशों, द्वीपों, समुद्र-तटों की वे सुन्दरियां, कुमारियां, जिनके साथ श्रेणिक की आत्मा अन्तर्ग्रस्त है। अभय राजकुमार, अजातशत्रु, वर्षकार, वैशाली और मगध के बीच का संघर्ष, श्रेणिक का साम्राज्यस्वप्न । तमाम समकालीन विश्व की जीवन-लीला, उसके वैषम्य, विसम्वाद, उसके युद्ध और संधियाँ, शान्तियाँ और अशान्तियाँ। उपग्रहों और विग्रहों के बेशुमार शाखाजाल । श्रेणिक में हो कर, चेलना में हो कर, त्रिशला की वेदना में हो कर, इस सारी संसार-शृंखला से अभी कल तक जूझता रहा है। अपने प्यार के मधुर रक्त-रसायन में डुबा-डुबा कर इस लोहे की साँकल को सोने की सांकल में रूपान्तरित किये बिना जैसे मुझे चैन नहीं। पर देखता हूँ कि अलग-अलग कड़ियों के जुड़ाव से निर्मित यह संकलना जब तक सांकल है, तब तक बन्धन और अलगाव बना ही है। टकराव, भटकाव और उलझाव अन्तहीन रूप से जारी है। और देख रहा हूँ कि सहसा ही, इस महारंगमंच के हम सारे ही अभिनेता, एक झटके के साथ नितान्त अकेले पड़ गये हैं। झनझना कर सांकल टूट पड़ी है। कड़ियाँ बिखर कर अपने-अपने एकान्तों में जा पड़ी हैं, और छटपटा रही हैं। संवाद और सम्प्रेषण की सीमान्तिक खिड़कियां अचानक बन्द हो गई हैं। मन और इन्द्रियों ने जवाब दे दिया है। उन्होंने अपनी सीमा और हार स्वीकार कर ली है। एक गत्यवरोध के मानुषोत्तर पर्वत ने हमारी चेतना की राहें रूंध दी हैं। एकलता के इस महाशून्य तट पर हम सब, हाय, कितने-कितने-कितने अकेले हैं ! Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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