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________________ ३०३ प्राणि मात्र मेरे भीतर प्राण धारण करें, साँस लेते रहें? क्या वृक्ष यह सोचता है, कि मैं पथिक को छायादान करता हूँ ? यदि नहीं, तो महावीर भी ऐसा कोई संकल्प नहीं रखता, ऐसा कोई आश्वासन नहीं देता, ऐसा कोई दावा नहीं करता । वह आश्वासन तुम्हें जहाँ से प्राप्त हुआ है, वहाँ से वह बोधि तुम सानन्द प्राप्त करो, श्रेणिक । मैं निश्चिन्त हूँ, मैं आश्वस्त हूँ, अपने बारे में, तुम्हारे बारे में । जहाँ से भी जो चाहो पाओ, जिस भी राह जाना चाहो जाओ । सारी राहें अन्ततः उसी एक आत्म की ओर जाती हैं। सारे गमनागमन उसी एकमेव गन्तव्य की ओर गतिशील हैं | अपना सुख, अपना प्राप्तव्य जहाँ भी तुम्हें दीखे, उस ओर निर्विकल्प, निर्द्वद्व बढ़ जाओ । मिल जायेगा । पर यह अनिवार्य है कि विकल्प और द्वंद्व मन में न रहे । तर्क-वितर्क और हिचक जी में न आये । अविचल, एकाग्र अपने लक्ष्य का सन्धान करो, वह जहाँ भी दिखाई पड़े । पर उन्नति और मुक्ति की यात्रा कुटिल जटिल अनेक चक्र-पथों को पार करती हुई ही सम्भव होती । हर आत्मा अपने भीतर की उस परम कुमारिका को पाने के लिये अपनी ही चाहों के अत्यन्त अपने और निराले कुँवारे जंगलों को पार करके ही, उस तक पहुँच सकती है। उस राह में महावीर पड़ता है या सिद्धार्थ गौतम पड़ता है, तो उनसे भी गुज़र ही जाना होगा । वहाँ भी मंज़िल नहीं । वहाँ भी रुका नहीं जा सकता । ये सब सिद्धाचल के आरोहण मार्ग के अनेक पड़ाव हैं, चट्टियाँ हैं, धर्मशालाएँ हैं । जो तुम्हारा गन्तव्य है, वह अत्यन्त विलक्षण, अत्यन्त निजी, एकमेव तुम्हारा है । अपनी उस एकमेव अकल कुँवारी प्रिया तक पहुँचे बिना चैन और विराम तुम पा नहीं सकते, जो सर्वदेश और सर्वकाल में नितान्त तुम्हारे लिये है, केवल तुम्हारी है। जो वह अपनी एकान्त सती रानी है, जिस तक पहुँचने के लिये आत्माएँ अविश्रान्त भाव से जाने कितने ही दुर्गम, दुर्भेद्य, सर्प-कुंडलित भवारण्य पार करती ही चली जाती हैं । राग-द्वेष और ईर्ष्या के अनेक ग्रंथिल नागचूड़ों में ग्रस्त होती है । जो प्रिया अत्यन्त और अन्तिम अपनी नहीं है, उसे ही अपनी आत्मा मान कर उसकी ऊष्म-शीतल कुन्तलछाँव में परम प्रीति का आश्वासन, एकत्व और विश्राम खोजती है । पर देखते-देखते वह प्रिया परायी हो उठती है । देखते-देखते निगाहें बदली बदली हो जाती हैं। जो सवेरे मेरे लिये प्राण तक दे देने को उद्यत थी, वह उसी शाम मेरे प्राण लेने तक को भी सन्नद्ध हो सकती Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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