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हाँ श्रेणिक, निग्रंथ ज्ञातृपुत्र तुम्हारा भूदान न स्वीकार सका। जो सम्भव नहीं, उसे कैसे स्वीकारूँ। जो स्वभाव नहीं वस्तु का, उस विभाव में कैसे प्रवृत्त होऊँ। जिस भूमि पर अन्तत: तुम्हारा अधिकार ही नहीं, उसका दान करने वाले तुम कौन होते हो? उसे लेने वाला मैं कौन होता हूँ। इतिहास में असंख्य बार भूपतियों ने इस भूमि पर अपना एकराट् आधिपत्य घोषित किया। पर क्या वे सच ही, उस पर अधिकार कर सके ? उसे रख सके केवल अपने लिये, एकान्त अपने द्वारा अधिकृत ? अपने तन और मन पर भी जो अधिकार और शासन न कर सके, वे बाहर की भूमि के स्वामी कैसे?
सम्भव है केवल आत्मदान । तुम्हारा अत्यन्त निजी आत्म, तुम्हारा एक मात्र स्वरूप, तुम्हारा स्वयमत्व, तुम्हारा वह चरम अस्तित्व, जो अन्ततः तुम हो, वही तो तुम निवेदित कर सकते हो। उसे ही तो देने का अचूक अधिकार तुम्हारा है। पर वह भी क्या किसी संकल्प या इरादे के साथ, किसी को दे देने की सत्ता तुम्हारी है ? ऐसा कोई राग या विकल्प जब तक है, तब तक तुम वह विशुद्ध आत्म हो ही कैसे सकते हो। संकल्प है तो विकल्प है ही, राग है तो द्वेष है ही । मैं किसी के प्रति अपने को देता हूँ, मैं इस व्यक्ति या वस्तु का उपकार और त्राण करूँगा, यह अहम् जब तक शेष है, तब तक तुम वह शुद्ध आत्म होते ही नहीं, जिसे देने का, या जिसकी सामर्थ्य से पर का उपकार उद्धार करने का दम्भ तुम करते हो ।
वह आत्म तभी अपने अविकल रूप में प्रकट होता है, जब लेने-देने, करने-कराने के सारे संकल्प और विकल्प समाप्त हो जाते हैं। बस, एक सच्चिदानन्द ज्योति का निर्झर जाने किस अचिन्ह , अनाम उत्समें से फूट पड़ता है। वह दान करता नहीं, उसका अपने आप में निरन्तर प्रवाहन ही एक विराट् आत्मदान है, जो आपोआप अणु-अणु में व्याप्त हो उसे प्रकाशित, आप्लावित और आप्यायित करता रहता है।
नहीं, श्रेणिक इसके अतिरिक्त किसी और आत्मदान, ज्ञानदान, सुखदान, समाधान, उपकार-उद्धार का दावा मेरा नहीं । क्या धरित्री यह कहती है, कि मैं तुम्हें धारण करती हूँ? क्या आकाश यह उद्घोष करता है, कि मैं तुम्हें ठहरने को अवकाश आवास देता हूँ ? क्या झरना यह दावा करता है, कि मैं तुम्हें जलदान करता हूँ? क्या नदी यह संकल्प करके बहती है, कि मैं तटवर्ती सारी प्रकृति और जनालयों को जीवनदान करती हूँ ? क्या हवा के मन में रंच भी कोई ऐसा इरादा है, कि मैं बहती हूँ, ताकि
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