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कुण्डला सर्पिणी कैसे जागे, कैसे उत्थान करे ? कैसे उसकी पूँछ उसके मुख में आ जाये, और आत्मा अखण्ड कैवल्य - ज्योति का प्रभामण्डल हो जाये ?
जगज्जयी श्रेणिक. कांचन, कामिनी, कीर्ति के सारे सीमान्त जीत कर भी तुम कितने अकेले छूट गये ? और ऐसा यह एकराट् सम्राट अकेला नहीं रह सकता । वह भयभीत है । वह अपने ही से भयभीत और भागा हुआ है। अब तक खोजे उसके सारे अबलम्बन टूट गये हैं । वह एक और, एक और अवलम्ब खोज रहा है ।
और श्रेणिक, अब तुम एक और अवलम्ब शाक्य - पुत्र सिद्धार्थ गौतम में खोज रहे हो। तुम उसके उस अज्ञात आगामी बोधिसत्व में आशान्वित हो । वह बोधिसत्व, जो अभी उपलब्ध नहीं बाहर कहीं भी, जो अभी आने को है । वह एक ऐसा भविष्य है, जो अभी सिद्धार्थ गौतम की भी पकड़ से बाहर है । जिसे पाने को वह स्वयम् मरणान्तक तपस्याओं से गुज़र रहा है।
और तुम अपने को आश्वस्त करते हो, कि एक दिन वह उसे लब्ध कर, सर्वप्रथम तुम्हारे पास आयेगा, और तुम सपना देख रहे हो, कि उसकी बोधि प्रभा से उस दिन राजगृही के चैत्य - उपवन झलमला उठेंगे। और तुम्हें लगता है, कि वह तुम्हें ज्यों ही हाथ उठा कर उद्बोधित करेगा, तो उसकी दृष्टि से दृष्टि मिलते ही तुम्हारे भ्रूमध्य में कोई सम्यक्त्व-नेत्र खुल उठेगा । मानो कि उसके चीवर की गहरी तहों में कोई चिन्तामणि छुपी होगी, जो वह निकाल कर तुम्हारे हाथ में थमा देगा । और तुम, आरपार आत्म-सम्बुद्ध और प्रकाशित हो उठेंगे। काश, ऐसा हो सकता, श्रेणिक !
नहीं, तुम्हारी इस माँग को मैं 'तथास्तु' नहीं कह सकता । और मैं तो जातरूप नग्न हूँ; मेरे तन पर ऐसा कोई चीवर नहीं, मेरे मन में ऐसी कोई गोपन तह नहीं, जहाँ ऐसी कोई ज्योतिर मणि संगोपित हो, कि तुम्हारी आर्त पुकार पर वह निकाल कर तुम्हें सोंप दूं । चमत्कार कर दूं । नहीं, महावीर ऐसा कोई आश्वासन, ऐसी कोई आशा तुम्हें नहीं दे सकता । वह कुछ कहता ही नहीं, वह कुछ करता ही नहीं । ऐसे किसी वाक् और कर्म से वह प्रतिवद्ध नहीं । अपने प्रति भी वह प्रतिवद्ध नहीं । अत्यन्त अप्रतिबद्ध, वह केवल सहज स्वयम् आप है । जो जितना, जैसा है, वह तुम्हारे सामने है । उसकी नग्नता केवल तन की नहीं, केवल मन की नहीं । उस तत्त्व की है, जो अन्ततः वह स्वयम् आप है ।
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