________________
३००
कसे, मैं एक ही महामण्डलाकार वक्षमंडल के दो ब्रह्माण्डों को क साथ, एक ही साँस में दुह रहा हूँ, पी रहा हूँ ।
चकित हो न, श्रेणिक ? रोमांचित और प्रहर्षित हो न? बिजयोल्लास से भर उठे हो न? ' . . 'यही कि महावीर चरम कायोत्सर्ग के शिखर से पतित हो गया। कि उसने श्रेणिक की धरती पर घुटने टेक दिये । कि वैशालक निगंठ नातपुत्त की अर्हत्ता ऋजुबालिका के जंघातटों में धराशायी हो गयी ?
___.. 'जानो श्रेणिक, तुम्हारी विजय के लिये, ओ मनुष्य के बेटेबेटियो, तुम्हारे कुण्ठा-छेदन के लिये, तुम्हारे प्रांजल सुगम उद्बोधन के लिये ही, महावीर ने भूगर्भ की राह ब्रह्मगर्भ में अतिक्रान्त होना स्वीकार किया है। ताकि भेद और विच्छेद की सारी बाधाएँ और कुण्ठाएँ प्राणि मात्र के बीच से हट जायें। ताकि मुक्ति-रमणी इस धरती और काया के मूर्त कलेवर में ही, तुम्हें सविता और सावित्री का भर्ग पान कराये ।
__ . . मुझे क्या अन्तर पड़ता है, यदि मेरे इस अवरोहण से, सृष्टि का सारा इतिहास, अपने दुश्चक्र का भेदन कर जाये। यदि हर आत्मा एक अनादिकालीन द्वंद्व के नागचूड़ से सदा को मुक्त हो जाये। क्यों कि मेरी ज्ञान-चेतना में, मेरे अवबोधन के वातायन पर, ऊपर नीचे, आरोहण-अवरोहण, उत्थान-पतन के आयाम एकान्तिक नहीं, निरपेक्ष नहीं, अनैकान्तिक और सर्वसापेक्षिक हैं। मेरा यह अवरोहण भी, एक और उच्चतर शिखर पर आरोहण नहीं है, यह कौन कह सकता है ?
त्रिशला, चेलना, श्रेणिक, ओ मनुष्य के त्रिकालवर्ती बेटे-बेटियो, तुम्हारा मनचाहा हो सका न? वही तो करने को यहाँ आया हूँ। वही न कर सकूँ, तो तीर्थकरत्व और अर्हतत्त्व फिर किस लिये ?
त्रिशला, अपने रक्त-मांस के योनिजात पुत्र को देखो। उसे जी चाहा पाओ, जी चाहा लो। - क्या तुम्हारी साध पूरी हुई ? · · ·चेलना, तुम्हारे कंचुकि-बन्ध टूट गये ! . . पर क्या तुम, पूर्णकाम हुई ? · · ·श्रेणिक, लो देखो - 'मैं ऋजुबालिका के जल-गर्मों में शायित होकर, मगध की भूमि में आत्मसात् हो गया। विजित, विवजित, विलोपित हो गया। तुम निःशंक, निर्भय, निद्वंद्व हो सके, सम्राट बिम्बिसार श्रेणिक ?
· · नहीं, नहीं। तुम सबके चेहरों पर वृहत्तर प्रश्नचिन्ह जल उठे हैं। तुम सब कितने-कितने अकेले, द्वीपायित, दीन, म्लान, उदास, आत्महारा हो अब भी । अपने ही अहम् में कुण्डीकृत। तुम्हारे मूलाधार की यह सहस्र
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org