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________________ थी। जैसे-जैसे नीचे को आता था, हर चट्टान के मोड़ पर, एक द्वार खुल जाता था। · · · इस तरह अवरोधों और खुलावों के कई तोरणों को पार करता मैदान में आ गया । उधर परे को लाल माटी की एक सड़क जाती दीखी। उसी पर चल पड़ा पश्चिम की ओर, जिधर सूर्य निर्गमन की यात्रा पर था । थोड़ी दूर चलने पर, ऊँची जवासे की बाड़ से घिरा कोई आश्रम दिखाई पड़ा । झुलसन और धूल-पसीने से मलिन शरीर को अविराम आगे बढ़ते देख किसी ने टोका : 'ओहो, · · 'राजर्षि वर्द्धमान कुमार ! मैं ज्वलन शर्मा, तुम्हारे पिता सिद्धार्थराज का पुराना मित्र हूँ । दुइज्जत तापसों के अपने इस आश्रम में मैं तुम्हारा स्वागत करता हूँ। कुमारयोगी प्रीत हों, और हमारे आँगन को पावन करें। चाहें तो आगामी वर्षावास यहीं व्यतीत करें। मैं यहाँ का अधिष्ठाता हूँ। अपने तापसों सहित तुम्हारी सेवा कर, हम कृतार्थ होंगे !' ___ मैं कुछ नहीं बोला । जहाँ ठिठका था, वहीं से ज्वलन शर्मा का अनुगामी हुआ। अब साँझ होने को है। तो रात्रिवास यहाँ कर ही सकता हूँ। तापस गुरु ने एक कुटीर की ओर इशारा कर, उसके आँगन की वट-छाया में मुझे चबूतरे पर बैठा दिया। हरे दोनों में कुछ फल, और जल की एक शीतल माटी की घड़िया सामने ला धरी । मैंने पुरातन अभ्यासवश, हाथ जोड़ कर उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट की। वे मेरे मौन से संकेत पा कर चले गये । शीतल जल के घड़े और फलों को नमस्कार कर, मैं यथास्थान पर्यकासन में ध्यान-मग्न हो गया। सूखते ओठों और रुद्ध कण्ठ में तीव्र प्यास का दाह अनुभव हुआ। उदर में भूख की ज्वाला भी प्रखर हो कर लहकी । भूख और प्यास के इस त्रास को सहने योग्य अनुभव किया । 'नहीं आज नहीं . . . फिर कभी मेरी बान्धवी क्षुधा-तृषा, तुम्हारे मन का कर दूंगा · · ·।' सारी रात गहरे ध्यान में ऐसा अनुभव होता रहा, जैसे कई ज्वालागिरियों को पार करता, एक वसन्त के हरियाले फूलों भरे मैदान में निकल आया हूँ। और एक शीतल अशोक वृक्ष तले बिछी, किसी अनाम मार्दवी शैया में निद्रालीन हो गया हूँ। सवेरा होने पर ज्वलन शर्मा और उनके अन्य तापस शिष्य आ जुटे । मुस्करा कर उनके सम्मुख खड़ा हो गया । दायाँ हाथ उठा कर उनको निर्वाक् ही आश्वस्त कर दिया, कि हो सका तो ग्रीष्म के अन्त में यहीं लौटकर वर्षावास करूंगा। और अपने पिच्छी-कमंडलु उठा कर प्रयाण कर गया । शेष ग्रीष्मकाल आसपास के मडंब, कर्बट, खेड़ा, ग्राम और परिसरवर्ती वनप्रदेशों में विचरण करता रहा । कभी छह टंक, कभी आठ टंक, और कभी पूरा पखवाड़ा उपवासी रहना होता है। अपने ही निकट, अपने ही भीतर प्रायः उपविप्ट रहने से, भूख-प्यास का दिनों तक अनुभव नहीं होता । कभी-कभी जब उनकी बाधा असह्य रूप से प्रकट हो जाती है, तो उन्हें पुचकार कर सुला देता हूँ, और अपने भीतर ही किसी नव्यतर शीतलता और तृप्ति का कुंज खोज Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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