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________________ रानों में उनके काँटे खुप जाते हैं : उन लाल बेरियों सी ही खुन की बूंदें पिण्डलियों में उफन आती हैं । झाड़ियों की डालियों में बेरियाँ फली हैं :तो मेरा शरीर भी उनके कंटक-वेध से फलीभूत हो उठा है । सामने एक जलता पहाड़ आ खड़ा हुआ । उसकी काली ललौंही चट्टानों में एक प्रचण्ड पौरुषशाली छाती का आकर्षण है । सो पहाड़ की तपती चट्टानों के ढलानों में चढ़ चला। · ·आगे जाकर चढ़ाई एक दम खड़ी हो गई है। चढ़ने के लिये पैर को मुश्किल से ही कोई अवलम्ब मिलता है। चढ़ना ही है, तो क्या सहारों और सीढ़ियों की राह देखूगा ? मेरे पैरों और मेरे हाथों को स्वयम् अपने ही अवलंब बन जाना होगा। चट्टानों की कृपा है, कि वे खुर्दरी हैं : उसी पीले, जलते खुर्दरेपन पर हाथ-पैर चाँपता हुआ, केवल एकाग्र सन्मुख दृष्टि से ऊपर की ओर चढ़ता चला गया । शिर पर पहुँच कर देखा, एक अकेला वृक्ष अभी भी कुछ हरियाला और छायादार था । वृक्ष बन्धु ने हरी डालों की बाँहें उठाकर मुझे बुलाया । मैंने मन ही मन कहा : 'मित्र ठहरो, इस पहाड़ की तपन को कुछ पीलू, तो फिर तुम्हारी छाँव में आकर विश्राम करूँगा । सो एक और सबसे ऊँचे शृंग पर चढ़ गया, जहाँ केवल दो पैर टिकाने लायक जगह थी। निरालंबता का अनुभव वहाँ पराकाष्ठा पर हुआ । सो वहीं स्थिर होकर, असीम आकाश की निरालयता और निरवलंबता में अपने को छोड़ दिया · · । खतरे की एक नीली लपटभरी खट्टी गंध क्षण भर खून में दौड़ गयी । सहसा ही एक तेज़ चक्कर-सा आया : उस पार की खन्दक में अपने शरीर को लुढ़कते देखा । और तभी पाया कि स्वयम् उस पहाड़ की अन्तिम चूड़ा होकर, उसके मस्तक पर निस्तब्ध जड़ित हो गया हूँ। लू की लपटें, सिन्दूरी लताओंसी बहुत प्यार से मेरे अंग-अंग के साथ रमण कर रही हैं । मेरी चेतना में बिद्ध सारी वासनाएँ मानों खुल कर बाहर आ गईं। अपनी झुलसन से अब वे मुझे बाँधने और दाहने के बजाय, मुक्त करने लगीं। एक नील-लोहित अन्तरिक्ष में मेरी समस्त चेतना निस्तब्ध, निश्चल हो गई । देखते-देखते कपड़े उतरने की तरह, देहभान गायब हो गया । अन्तर में शांति का एक शीतल झरना-सा बहने लगा। · · तीसरे पहर सहसा ही जब आँखें खुलीं, तो देह का अणु-अणु पसीने के उबलते लावा में नहाया हुआ था । सन्मुख आवाहन करते वृक्ष-मित्र की छाँव में जाकर, एक शिलातल पर बैठ गया । वृक्ष बान्धव ने अपनी विरल पल्लवी डालों का पंखा डुलाकर मुझे सहलाना चाहा · · । 'अरे नहीं बन्धु, इस तरल अग्नि के प्रवाह का निरोध नहीं करूंगा । इसे चुका कर, इसकी अवधि पर पहुँचा देना होगा । ताकि यह अपनी मर्यादा जाने : और मैं अपनी अमर्यादा में निर्बाध विचर सकूँ। .. पहाड़ से उतरने लगा, तो उसके ईशान कोण की अनजान बीहड़ता में जहाँ-तहाँ पद-पद पर रुंड-मुंड भीमाकार काली शिलाओं से राह अवरुद्ध दीखती Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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