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________________ . १९ हम तो सर्वहारा हो गई हैं। तुम्हें छोड़कर अब हमारा जी संसार के काजकर्म में कैसे लगेगा? माता-पिता को क्या उत्तर देंगी ? हमारे कटाक्ष तो तुमने छीन लिये : अब अपने प्रियतमों को हम कैसे रिझायेंगीं. • • ?' । निराविल आंखें उठाकर एक बार मैंने उनकी ओर देखा । मेरे. ओठों पर प्रशम की एक समकित मुस्कान खिल आई । मेरी आँखों में उन्होंने पढ़ा : 'तुम्हारा ही तो हूँ । लो, मेरी आँखों को अपनी आँखों में आँज लो। फिर अपने प्रियतम में भी अपना ही रूप देखोगी । वही तो मैं हूँ। फिर बिछुड़न कहाँ रह जायेगी ! चिन्ता न करो । संसार के सारे काज-कर्म अब तुम पहले से अधिक अच्छी तरह सम्पन्न कर सकोगी • ।' · · ·और वे बालाएँ सहसा ही जैसे उन्मुक्त हो उठीं। बाहरी सुधबुध भूल कर, कर्णिकार, किंशुक और कचनारों के फूलों छाये वन-देश में उन्मन विभोर सी विचरती दिखाई पड़ी । अपने जाने तो निरुद्देश्य ही यात्रा कर रहा हूँ। किसी लक्ष्य या कामना का प्रतिबंध क्यों कर स्वीकार सकता हूँ। अपनी निर्बन्धन और नैसर्गिक गतिमत्ता को उपलब्ध होना चाहता हूँ। लौट रहा हूँ या आगे बढ़ रहा हूँ, क्या अन्तर पड़ता है। अन्ततः यह संसार एक ही परिक्रमा के कई फेरों से आगे जाता तो नहीं दीख रहा। इस चक्रावर्तन के छोर पर पहुँचना चाहता हूँ। और उस बिन्दु से ही वह प्रस्थान सम्भव होगा, जिसकी यात्रा फिर प्रतिपल मौलिक और नित-नूतन ऊर्ध्व के अनन्तगामी प्रदेशों में होगी । सो चाहे जितना ही निरुद्देश्य हो मेरा भ्रमण, पर किसी परम उद्देश्य की उँगली का संकेत इसके पीछे ज़रूर है। हर फेरे के अनुभव से अन्तिम रूप से गुजर जाना होगा ताकि आगे की ओर बढ़ना निर्बाध हो सके । उससे पहले अनभव की यात्रा में, जिधर भी गति हो, उसमें कोई अभिप्राय होगा ही। __ चीन्ह रहा हूँ, कि लौट कर फिर मोराक सन्निवेश के प्रदेश में आ निकला हूँ। दूरी में छोटी-छोटी पहाड़ियाँ फैली दिखाई पड़ती हैं । दिन चढ़ते-चढ़ते तेज़ लू भरी हवाएँ चलने लगती हैं । देह में वे आग की लपट-सी लगती हैं : सारा तन-बदन झुलसता चला जाता है। राह के तपे हुए धूल-कंकड़, नग्न पदत्राणहीन पगतलियों में गरम शलाखों से चुभते हैं। पहाड़ियों की ओर से आती धूलभरी ह - में, वृक्षों से झर-झर कर आती सूखी पत्तियां उड़ती दिखाई पड़ती हैं। वनानियों में विरल ही पत्ते रह गये हैं। टीलों भरे उजाड़ में, केवल झाड़ों के रुंड-मुंड कंकाल दूर तक फैले दीखते हैं। उदास गर्म हवा के झकोरों में उन्हीं की नंगी डालें हहराती रहती हैं।... हां, ग्रीष्म ऋतु आ लगी है। ___भर दुपहरी में राह छोड़ कर, पहाड़ियों को पार करता चला गया। जंगल के जाली बेरों की नीची झाड़ियां नन्ही हरी पत्तियों से अभी भी भरी रगों और Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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