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________________ १८ मेरी नासाग्र स्थिर दृष्टि में अपने ही ओठों की मुस्कान झलक जाती है । मन ही मन उन्हें उत्तर देता हूँ : 'युवा मित्रो, अपनी ही नाभि की कस्तूरी में विहार करो । आपोआप तुम्हारी और तुम्हारी प्रियाओं की देह दिव्य सुगन्धी से महकने लगेगी । खंडित काम से कब तक विकल रहोगे । अपने काम को अपने में समाहित कर, सकलकाम सुख के भोक्ता बनो । युवाजन एकाएक प्रबोधित-से दीखते हैं । अपने ही अंगों में वे अपनी कामिनी के स्पर्श का रोमांचन अनुभव करते हैं । कहीं दूर की अमराई में अकेले होकर, अपनी वेणु में अन्तर - प्रिया को पुकारते हैं । I तभी कोयल- कूजित अमराइयों में झूला झूलती कई सुन्दरी युवतियाँ मेरे पास घिर आती हैं। बालों में वे कार्णिकार और कुर्बक फूलों के गुच्छे खोंसे हैं। कानों में आम की मँजरियाँ उरसे हैं । उनके पीले और घेर घुमेर बसन्ती चीरों में गुलाबी रंग की बूँदे छिटकी हैं । वे सहेलियाँ परस्पर गलबहियाँ डाल कर, मेरी ओर चंचल मदभरी चितवन से कटाक्ष करती हैं, भ्रूभंग करती हैं। आपस में कानाफूसी करती हुई कहती हैं : 'देख तो सखी, कैसा कौतुक घट रहा है । मदन देवता संन्यासी हो कर किसी अनोखी कामिनी की खोज में निकल पड़े हैं । रति बेचारी मनमारे कहीं कुटज कुंजों की छाँव में छटपटाती होगी । इस अनंगराज के पास आने की उसकी हिम्मत नहीं | ऐसा सुन्दर और मनमोहन युवा तो हमने कभी देखा नहीं । इसके रूप-यौवन की प्रभा को देख कर हमें अपने लौकिक पति प्रियतम भूल गये हैं । विचित्र जादूगर जान पड़ता है यह तापस । अरी सुन री, लगता है इसके पास कोई महामोहिनी विद्या है। इसके दिगम्बर लावण्य की विभा बड़ी हठीली और अनहोनी हैं । बरबस ही हमारे तन-मन के सारे आवरण उतारे ले रहा तो उनमें से कोई एक युवती कुमारिका सहसा ही बोली : 'मन करता है, इसका नाम - गाँव और पता पूछें। किस माँ का लाड़िला होगा यह ? इसकी कोई प्रिया नहीं क्या ? हाय, कैसा जी चाहता है, कि यह हमें अंग लगा ले । कैसा सुख होगा री, इसके अंगों के रभस में ! फिर एकाएक कोई दूसरा व्याकुल स्वर सुनाई पड़ता है : ‘ओरे नीलोत्पल से नयनों वाले योगी, चुपचाप खड़े हो, पर बड़े चकोर जान पड़ते हो। तुम तो हमारा चीर-हरण करते से लगते हो । हमारे तन, मन, प्राण, इन्द्रियों को तुमने अपनी नासाग्र चितवन से कीलित कर दिया है । अपनी वीतराग मुस्कान में हमारी सारी चेतना को तुमने कैसे गहन सुरति-सुख से विभोर कर दिया है । तुमने तो हमारा सर्वस्व हर लिया । अपना आपा हार कर, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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