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________________ निकालता हूँ। वहाँ निराकुल भाव से अवस्थित हो जाने पर, शांत चित्त से किसी .. ग्रामबस्ती में गोचरी पर निकल पड़ता हूँ। किसी भी द्वार पर अचानक अतिथि श्रमण के लिये द्वारापेक्षण करते गृहस्थ का आवाहन सुनाई पड़ जाता है : 'भो स्वामिन् तिष्ठ : तिष्ठः . . .' · · पाणि-पात्र की अंजुलि में रुखा-सूखा, सरस-मधुर, स्वादु-अस्वादु जो भी आहार दिया जाता है, उसे भिक्ष समभाव से ग्रहण कर लेता है। उसके पैर उसी आवाहन पर रुकते हैं, जहाँ का भोजन प्रासुक हो, पवित्र हो, भक्ष्य हो । फिर नाम, कुल, गोत्र, जाति से निरपेक्ष, किसी भी श्रमिक, श्रावक, धनी-निर्धन, राजा-रंक के द्वार पर वह निर्विकल्प चित्त से भिक्षा ग्रहण कर लेता है । अपने ही लिये विशेष रूप से पाक किया भोजन वह नहीं लेता । नित्य जिस घर शुद्ध तन-मन, शुद्ध हृदय, शुद्ध संस्कारपूर्वक आहार बनता है, उसे वह सहज ही पहचान कर, उस द्वार का आतिथ्य स्वीकार लेता है ।। • स्वभाव ही हो गया है कि मेरे आसन, चर्या, शयन से किसी सूक्ष्म जीव की भी स्वतंत्र चर्या में बाधा न पहुँचे, उनका घात न हो । जीवाणु मात्र मेरे वर्तन से अघात्य रहें, तभी तो मेरा अस्तित्व भी पूर्ण अधात्य हो सकता है । सो अपनी पुरुषाकार दूरी तक की भूमि के सारे दृश्य जीवों की रक्षा करता हुआ चलता हूँ । जब तपस्या की महावासना से उन्मेषित होकर पर्वतों पर चढ़ता हूँ, तो शरीर स्वभावतः ही फूल-सा हलका और मृदु हो जाता है । जीव की विराधना तब शरीरतः ही मेरे लिये सम्भव नहीं रहती। जिस आसन पर ध्यानारूढ़ होना हो, या जिस शिलापट्ट पर लेटना हो, अपनी मयूर-पिच्छिका से उसका शोधन कर लेता हूँ। क्षण-क्षण अप्रमत्त भाव से, सर्व के प्रति जागृत और सावधान जीता हूँ। जड़ चेतन सभी पदार्थों का स्पर्श आत्मा के पूर्ण मार्दव से ही कर पाता हूँ। जी में यही लौ-लगन लगी रहती है, कि मेरी हर क्रिया या चर्या प्यार हो । प्यार, जो हर किसी विशेष के प्रति न होकर, अपने आप में एक स्वयम्भु धारा है, मेरी चेतना की। कि फिर जो भी उसमें आये, वह समाधान पाये, शरण पाये, मेरे साथ सम्वादी हो जाये । इसी से मेरी सारी जीवन-चर्या ही, एक स्वाभाविक ध्यान की अवस्था में चलती है । ज्येष्ठ मास की इस प्रखर लू भरी दोपहरी में, चलते-चलते कहीं किसी सरोवर के तीर, कोई शीतल छाया वाला जम्बूवन दीख जाता है। ओंठ और कण्ठ की प्यास उत्कंठित हो उठती है । लू और गरम धूल से झुलसा शरीर शीतलत छाया के लिये तरस जाता है । चलते-चलते रुक कर चारों ओर के दिशान्तों तक का अवलोकन करता हूँ । आसपास की दरकी हुई धरती को देखता हूँ । पानी पीने के लिये उड़ते व्याकुल पंछियों की हारों पर निगाह डालता हूँ । घास और जल की खोज में त्रस्त भटकते पशु-चौपाये Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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