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शासन-नीति के आधार पर, राजनीति के नये मूत्र गढ़ रहा है । तुम्हारी गतिविधियों की शतरंज पर लाओत्स आत्मिक क्रिया-शक्ति के नये मंत्र पढ़ रहा है।
.. फिर भी आज तुम इतने सर्वहारा, आत्महारा, दिग्भ्रमित क्यों? सागरण काम और ईहा से परे की तुम्हारी दुर्दाम महावासना को अनुक्षण समझता, अनुभव करता हूँ। वह ऊर्ध्व-रेतस् वासना, वह बँधे पारद-सा वीर्य, जो चेलना जैसी अनन्तिनी रमणी के परिरम्भण में भी अ-क्षरित रहने की वज्रोली साधे रहा ! उसे बिन्दु-दान करके भी, जो उसे और अपने आपको मुकर गया । उस चित्त का परिचालक आवेग मेरी कनिष्ठा उँगली के पोर में स्पन्दित है ।
आर्यावर्त और जगत की हर नज़र पड़ जाने वाली श्रेष्ठ लावण्या को बाहुबद्ध किये बिना तुम्हें कल नहीं पड़ सकी ! हर जनपद के कुन्दोज्ज्वल कौमार्य को अपने चुम्बन से मुद्रांकित किये बिना तुम्हारा अहम् खामोश न हो सका। जम्बूद्वीप की हर जनपद-कल्याणी तुम्हारी गर्भधारिणी होने को तरस गई। तुम्हारे उस अजित-वीर्य अहंकार की मुझे ज़रूरत है, श्रेणिक !
उठो श्रेणिक, उत्तान मस्तक मेरे सामने खड़े रहो । मैं तुम्हारे अहम् । की उस ऊँचाई को अपने आलिंग से माप कर, उसे और भी ऊपर ले जाना चाहता हूँ। मैं तुम्हें उस ऊँचाई पर खड़ा कर देना चाहता हूँ, जहाँ से तुम अपने प्रतिस्पर्धी लगते महावीर को ठीक-ठीक देख सको, पहचान सको। तुम इतने विशाल हो जाओ, कि मझे केवल अपने हृदय-देश का अंगुष्ठप्रमाण अन्तरिक्ष भर देखो। यानी तुम केवल अपने को देखो, मुझे न देखो। उस दर्शन का दर्पण भर हो रहे महावीर, तुम्हारे लिये । जब तुम दर्पण में देखते हो, तो दर्पण को नहीं देखते, केवल अपने को एकाग्र देखते हो। और दर्पण की सत्ता अनजाने ही लुप्त प्राय हो रहती है। · ·और यह दर्पण ऐसा है, कि ज्यों ही तुम अपने आमने-सामने होगे, तो वह आप ही वायु में विलीन ही जायेगा । तब ग्रह-तारा मंडित जो विराट् गगन-मंडल खुलेगा, उसके बीच तुम ब्रह्मांड के शीर्ष पर अपने को एकाकी बैठा देखोगे । . .
- भयभीत हो उठे, श्रेणिक ? अपने उस विराट रूप से बच कर भाग रहे हो ? इस क़दर, कि अपनी ही पहचान को भुलाने के हज़ार उपक्रम, बेतहाशा हर पल कर रहे हो । तुम्हारी यह यातना, मेरी अपनी हो गई है। यह प्रत्येक जीवात्मा की चरम यातना ग्रंथि है। इसकी गांठ-गाँठ में से अणु-प्रति-अणु, पर्त-दर-पतं गुज़रे बिना, अपने मुक्ति-मार्ग पर मेरा अगला अभियान सम्भव नहीं ।
परमाणु से भी छोटे हो जाने की भ्रान्ति में पड़े हो? इससे बड़ा अहंकार और क्या हो सकता है ? पर वह तुम में जाग कर, तन कर,
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