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अनम्य श्रेणिक, यह तुम्हें क्या हो गया है ? समद्र-कुन्तला पृथ्वी का पति एक निष्किचन, निरीह नंगे के आसपास चक्कर काट रहा है ! सुवर्ण-खचित उपानह का धारक, सुकोमल गौर-चरण राज-पुरुष, नंगे पैरों इस नदी-तट की पंकिलता में क्या खोज रहा है ? महद्धिक राजवेश त्याग कर, वह एक पांशुकुलिक पथहारा बटोही की तरह, इस परित्यक्त उजड़े उद्यान को भग्न सराय में क्यों आ बसा है ? बादल-बेला की अंजनी छाया में, नदी के इन निचाट निर्जन प्रान्तर-छोरों में वह क्या खोज रहा है ? · · ·उस बढ़िया का ध्यान आ रहा है, जो घर में खोई अपनी सूई को, बाहर विजन के आँगनों में, लालटेन ले कर खोज रही है।
राज-काज त्याग कर यहाँ क्या लेने आये हो ? तुम्हारा चक्रवर्ती सिंहासन सूना पड़ा तुम्हारा मुँह ताक रहा है। तुम्हारा छिन्न-भिन्न साम्राज्यस्वप्न एक सर्वहारा भिक्षुक के पैरों में पड़ा कौन-सी सिद्धि खोज रहा है ?
कोमल मसूण हंस-पंखी शैया त्याग कर, इस नग्न धरती के कंकड़-कांटों से बालिगित तुम्हारी राजसी देह पर मुझ तरस आ गया है। · · क्या तुम मुझे अपनी शैया नहीं बना सकते ? जानता हूँ श्रेणिक, अपना मस्तक उतार कर, तुम्हारे सिरहाने धर दं,तब भी तुम यही कहोगे--'नहीं, यह मुझे चुभता है'.. तो बोलो, मैं तुम्हारे लिये क्या करूँ ? ।
दिगन्तों तक व्याप्त तुम्हारी कीति के कलश मेरे ध्यान से बाहर नहीं । कुशाग्रपुर के राजमार्ग पर भंभावाद्य फंकता हुआ, जो राजपुत्र अनर्गल दिशाओं में निकल पड़ा था, उसे पहचानता हूँ। उसकी आज तक की और आगामी जया-यात्रा के दिग्-चिन्ह मेरी निगाहों में झूल रहे हैं। जलते राजभवन में से जो सिंहासन निकाल लाया था, उसे सिंहासन की कोई कामना नहीं थी, यह मुझसे छुपा नहीं । दक्षिणावर्त की पग-पग पर समर्पिता सुन्दरियाँ, जिस निगाह में न अँट सकी, उस निगाह का मैं भिक्षुक हूँ । अंजनगिरि के सहस्रकूट चैत्यालय के वज्र-कपाट जिस ललाट की छुवन मात्र से खुल गये, उसकी लिपि को मुझसे अधिक कौन पढ़ सकता है ? राज-पुरोहित-कन्या नन्दश्री के सर्वस्व-समर्पण, और भव्य भविष्य-दर्शन के सम्मुख स्तब्ध होकर भी, जो उसके ऊष्माकुल आलिंग में भी अनम्य ही रहा, उस श्रेणिक को इतना सर्वहारा देख कर मैं कातर हो आया हूँ।
तुम्हारे प्रताप, पराक्रम और ऐश्वर्य के सीमास्तंभ, मैं तुम्हारी निगाह से आगे के अन्तरिक्षों में उठते देख रहा हूँ। तुम्हारे स्वप्न के चक्रवर्तित्व से परे का एक चक्रवर्ती सिंहासन तुम्हारी प्रतीक्षा में है । सहस्राब्दियों के पार, मैं तुम्हारे उस दिगन्त-व्यापी राज-छत्र का साक्षी हूँ। मुझे पता है, श्रेणिक, महाचीन का युगान्तर-द्रष्टा कन्फूशियस अपने काग़जी फानूस की रंग-बिरंगी रोशनी में, तुम्हारी
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