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से दूर-दूर ही भागी फिरी। - हाय, मैं अपने ही को छलती चली गई। नाथ, . . . ऐसी मूर्छा क्यों ?'
'तुम अपने पातिव्रत्य के खो जाने का खतरा देख रही थी। तुम दुविधा में रही, द्वैत में रही । फिर भी अद्वैत का दावा करती रही · · ।' ____ 'मेरे, प्रभु · · · !'
'लेकिन जानो सम्राज्ञी, तुम्हारा हृदय-सम्राट तुम्हारी कंचुकी में से कभी का चराया जा चुका है !'
वज्राहत चेलना धरती में गड़ी जा रही है।
. . . 'ओ बलात्कारी, अब और न कमो । खोलो, ढीला करो यह कसाव । मुझे साँस लेने दो, अपने हृदय के अन्तरिक्ष में ।'
___'तुम्हारा सम्राट तुम्हें सुरक्षित लौटा देने आया हूँ, सम्राज्ञी । महावीर आत्माओं को तोड़ता नहीं, जोड़ता है।' _ 'लेकिन ' . .
'लेकिन जोड़ने से पहले, दा के बीच की मोह-ग्रंथि को अन्तिम रूप मे तोड़ देता है। ताकि फिर जो जुड़ाव हो, जो गुम्फन हो, वह अन्तिम हो और आत्मस्थ हो।'
'. - तुम से बाहर कोई श्रेणिक मुझे नहीं चाहिये, स्वामी !' 'वह भी मैं ही हूँ। वहाँ भी मैं ही हैं। जो यहाँ है, वही वहाँ है !' 'मुझे लिवा ले जाने आये हो, मेरे नाथ?' 'वह अगली बार आऊँगा, अभी लग्न-मुहूर्त नहीं आया !' 'क्या रहस्य है, समझी नहीं?' 'तब पूर्ण पुरुष पूर्ण नारी की खोज में आयेगा।' 'और आज ?' 'अपूर्ण पुरुष अपनी पूर्णता की खोज में आया है !' 'मुझ अपूर्ण में ?' 'पूर्णमदः पूर्णमिदम्, पूर्णात् पूर्णमदच्यते · · · !'
--मालती लता में बहती हवा में और केतकी की सुगन्ध-निविड़ कण्टकचुभनों में गूंज उठा।
'. . हाय, हठात् तुम कहाँ चले गये, मेरे भगवान ? · · ·आह, यह क्या सुन रही हूँ?
'ऋजुबालिका के जल-कक्षों में आओ, चेलना ! . . . '
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