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'ओह वर्द्धमान, - 'तुम यहाँ अचानक ? स्वप्न देख रही हैं, कि
सत्य ?'
'स्वप्न, जो सत्य हुआ चाहता है !'
'लेकिन तुम · · · कैसे, कैसे यहाँ हो, अभी ? किस राह, कैसे · · · कैसे आये ?'
एक विस्तृत, उत्तान, उत्तर देता-सा मौन ।
'• • “यह माया है कोई ? कोई व्यांतरिक प्रपंच ? इन्द्रजाल ? महावीर ऋजुवालिका तट पर अटल मानुषोत्तर की तरह खड़ा है। वह वहाँ से हट नहीं सकता, विस्फोटित ही हो सकता है। . . "फिर तुम कौन, ओ प्रवंचक ? हट जाओ मेरे सामने से !'
'महावीर को क्या उस एक शरीर में ही बन्दी देखती हो, चेलना ? क्या वह केवल मात्र वह एक शरीर है, जो वहाँ, उस जीर्ण उद्यान के वीरान में अकम्प उपविष्ट है ?'
एक अधिकाधिक गहराती निस्तब्धता । '. · मैं निर्धान्त हुई । मैं कृतकृत्य हुई । मेरे स्वप्न, तुम आ गये ?' 'तुम तक पहुँच सका महावीर ?'
'लज्जित न करो, मेरे प्रभु ! तुम तो सदा आरपार आये मुझ में । पर मैं ही बार-बार रुद्ध हो गयी । कम पड़ गई । संकोच और विकल्प में रही। हिचक गई. ।'
‘फिर विकल्प ? सम्मुख जो है, उसे नहीं देख रही?'
'देख रही हूँ, अपना वह स्वप्न जो तथ्य से भी अधिक सत्य, ठोस और विश्वसनीय है।'
'फिर क्या सोच रही हो? मन से आगे नहीं आओगी?'
'बार-बार मुझसे भूल हो गई। तुम्हारी एकाग्र ध्यानलीन चितवन का वह समतौल कटाक्ष मैं सह न सकी। उस खिंचाव की चोट से विकल, आहत, बेतहाशा लौट गई ।' • तुम्हारे अन्तर्कक्ष के आमन्त्रण से मेरा अणु-अणु पसीज गया। · · मैं भयभीत, लज्जाकुल हो कर अपने ही से पलायन कर गयी । तब मैं आप ही अपने को भरमा कर, तुम्हें बाहर ही कहीं खोजने का अभिनय करती रही । मैं समझ न सकी, उस सर्वस्वहारी सम्मोहन का रहस्य । मैं शिकायत ही करती रही, कि तुमने मुझे आँख उठा कर भी न देखा ? · · ·और मैं तुम्हारे अयस्कान्त के उस चम्बक-चुम्बन
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