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सृष्टि में माँ और पुत्र का सम्बन्ध भी अपनी जगह शाश्वत क़ायम है ही । वह माँ त्रिशला हो या और कोई, वह पुत्र वर्द्धमान हो या कोई और, नया अन्तर पड़ता ।
एकमेव माँ सदा थी, सदा है, सदा रहेगी। एकमेव पुत्र सदा था, सदा है, सदा रहेगा । पर नाम रूप और तात्कालिक सम्बन्ध की पर्याय, उसके वह रहने की बाध्यता नहीं, शर्त नहीं । कोई भी नाम, रूप, सम्बन्ध, पर्याय या प्रीति क्यों न हो. एकमेव आत्मा के अतिरिक्त अन्ततः वह कुछ नहीं । विशुद्ध द्रव्य के अतिरिक्त दह कुछ नहीं । आदि, मध्य और अन्त में, नित्य विद्यमान है केवल समुद्र । उसमें जो निरन्तर तरंगों का परिणमन है, उसी में सारे नाम-रूपसापेक्ष जीवन की सम्बन्ध-लीला यथा-स्थान चल रही है । समग्र समुद्र हो रहो, तो तरंगों की क्षण-क्षण उदीयमान विलीयमान लीला का सत्य भी सहज अवबोध होता रहता है । समुद्र है, तो उसका स्वभाव तरंगिमता भी है ही । समुद्र सत्य है, तो तरंगमाला भी सत्य है ही । द्रव्य सत्य है, तो उसका स्वभावगत पार्यायिक परिणमन भी सत्य है ही । समुद्र में तरंग का इनकार नहीं, तरंग में समुद्र का इनकार नहीं । यह साक्षात् होने पर, सारी वर्जनाएँ समाप्त हो जाती हैं, विरोध, विपर्यय, विछोह की वेदनाएँ तिरोहित हो जाती हैं । सहज स्वभाव में रहने लगते हैं ।
इस सहजावस्था में संसार और निर्वाण का भेद ही निर्वाण पा जाता । संसार की लीला में ही, सर्वत्र सहज निर्वाण का बोध होता है। निर्वाण में स्थित सिद्धात्मा में संसार अव्याबाध रूप से रमणशील रहता है । मुक्तिरमणी की गोद में कोई विधि - निषेध, इनकार - स्वीकार नहीं । यथास्थान जीवन की हर लीला को वहाँ सहज स्वीकृति प्राप्त है । मानवों के सारे सम्बन्ध वहाँ सहज सुरक्षित भाव से प्रवर्त्तमान हैं । जहाँ गन्तव्य स्वयम् उपस्थित है, वहाँ यात्रा के पड़ावों का भी मूल्य अपनी जगह यथार्थ है ही ।
'वेशक, देश-काल के संक्षुब्ध समुद्र की मझधारा पर खड़ा हूँ इस क्षण । पर गन्तव्य के उस सहस्रार पद्मवन को अपने स्नान - सरोवर के लीला- कमल की तरह अपनी बाँह की पहोंच में स्पष्ट देख रहा हूँ । इसी से अब पाने या खोने, मिलने या बिछुड़ने, जीने या मरने की भाषा निरी भ्रान्ति लग रही है । निरे खोखले शब्द, जो अपना क्षुद्र अर्थ खो चुके हैं ।
तब, ओ त्रिशला, तुम माँ रहो या और कुछ, मैं पुत्र रहूँ या और कुछ, क्या अन्तर पड़ता है । यद्यपि वह रहने के आग्रह और आवश्यकता से परे जा चुका हूँ, पर तुम चाहो तो वह भी यथास्थान रहने से मुझे परहेज़ नहीं । 'तब सोचो, ओ नारी, क्यों वही और वहीं रहना चाहती हो । जहाँ
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