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चरम एकलता के किनारे
त्रिशला, भर नींद में मझ रात के सन्नाटे को चीर कर जो शूल तुम्हारे वक्ष को भेद गया, वह झूठ नहीं। मेरे मस्तक के आरपार हो कर, तुम्हारी छाती को बींध कर, सृष्टि के प्रत्येक परमाणु और जीवाणु में होकर वह गुज़र गया है। माना कि इस प्रहार से सकल चराचर हताहत हो गये । लेकिन फिर भी वे अनाहत ही रह गये, यह नहीं देखोगी ?
निश्चय, वह भी देखा तुमने । आघात की परा कोटि पर ही, क्या तुमने मुझे अघात्य भी नहीं देखा? उस क्षण, इस आघात से पूर्व मुझ पर होने वाले सारे प्रहारों और पीड़नों को भी क्या तुमने व्यर्थ और व्यतीतमान नहीं देखा? वेदना मात्र के उस एकाग्र बिन्दु पर क्या तुम्हारी कोख ही नहीं बोल उठी, राज-पिता के समक्ष, कि-- ।.. 'तुम्हारा बेटा अब मौत से आगे जा चुका . . 'जाओ, निश्चित हो कर सोओ!'
लेकिन दर्शन-ज्ञान का वह अन्तर्मुहूर्त भी तिरोहित हो गया। अब देख रहा हूँ, कि तुम्हारा मानव चित्त फिर संदिग्ध और शोकाकुल है। · · ·किसने पुकारा 'माँ', पता नहीं। कौन है वह 'माँ', नहीं मालूम । लेकिन ब्रह्माण्ड में गूंज उठे उस 'माँ' में से जो अनुगुंजित हुआ 'आत् - 'मा' : वही आत्मा तुम हो, वही मैं हूँ। चरम चोट की अनी पर चिन्मय हुई तुम्हारी चेतना में भी वह श्रुत और प्रतिश्रुत एक साथ हुआ। तुम सम्बुद्ध हो कर अपनी पीड़ा के बावजूद सत्य की साक्षी देने को विवश हुई। तुम नहीं बोलीं, स्वयम् सत्य तुम्हारे ओठों बोला, तुम्हारे रक्त की तरंग-तरंग में वह अनुध्वनित हुआ।
अभी भी तुम्हारे सारे नाड़ी-मंडल में वह ध्वनि अनाहत, अव्याहत प्रवाहित है। तुम्हारी धमनियों के मृदंग में अविराम वही अनहद नाद बज रहा है। सत्य के उत्तीर्ण तट पर अविकम्प लौ-सी खड़ी उस आत्मा की अनक्षत प्रभा में तुम्हारे मातृत्व और मेरे पुत्रत्व का इनकार नहीं है । पर्याय की ये दो तरंगें ज्योति के समुद्र में अनगिन बार उठी और विलीन हो गयीं। जाने कितने न जन्मान्तरों में, कितनी न बार तुम मेरी माँ हुईं, मैं तुम्हारा पुत्र हुआ। नाम-रूप-सम्बन्ध की वह लीला महाकाल के प्रवाह में जाने कब, जाने कहाँ विलुप्त हो गई। पर तुम जो हो, वह तो अविलुप्त, अविच्छिन्न आज भी ज्यों की त्यों हो ही। मैं जो हूं, वह भी अमिट, अलोपनीय, अक्षुण्ण आज भी हूँ ही।
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