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सुगन्धित, कुमुदों में बसाये शालि-तन्दुल का तू भोजन करता रहा है। फिर भी कन्थाधारी भिक्षक को देख, उससे ईर्ष्या करता रहा। उसके भिक्षान्न को तरसता रहा । तेरी यह सदा अभीप्सा रही, कि कब आयेगा वह मुहूर्त, जब मैं भिक्षान्न का भोजन करूँगा? यही सोचकर तो तू घर से निकल पड़ा था। पर अब वह मनोवांछित पा कर, तू उसी से ग्लानि कर रहा है ? तो अब तेरी क्या गति हो सकती है, ओ मूढ़, अज्ञानी, कायर ?' और देव, यह फुसफुसा कर वह शान्त समाधीत हो गया। फिर अविकार चित्त से उसने भोजन किया। और अब वह प्रसन्न शान्त मुद्रा से तरु-छाया में बैठ अप्रयोजन ही सब-कुछ को निहार रहा है।'
मेरा मन प्रबल जिज्ञासा से उदग्र हो आया। मैं तत्काल अकेला ही पाण्डव-पर्वत की छाया में जा पहुँचा। विनत मात्र हो मैंने अपने सारे ऐश्वर्य मन ही मन भिक्षुक को अर्पित कर दिये। तब मैंने निवेदन किया कि :
'देवानु प्रिय, अज्ञात राज-संन्यासी, मेरी भेंट स्वीकारो। मेरे किसी प्रदेश के राज्यपाल हो कर अमित सुख-वैभव का भोग करो। कौन हो तुम. हे पुरुषपुंगव ? कृतार्थ करो मुझे।'
संन्यासी अविचल, मौन, अपलक दूरियों में दृष्टि खोये निस्तर बैठा रहा। मेरे बारम्बार अनुनय करने पर वह मुखर हुआ :
'राजन्, कपिलवस्तु का आदित्य गोत्रीय, शाक्य राजपुत्र सिद्धार्थ गौतम, जान-बूझ कर ही अपने प्राप्त राज्यैश्वर्य को काक-बीटवत् त्याग कर निकल पड़ा है। संसार के किसी भी सुख-भोग में उसकी रुचि नहीं रही । · वस्तु और भोग की कामना से उपराम, उत्तीर्ण हो गया हूँ। नित्य, शाश्वत सुख देने वाले बुद्धत्व की खोज में परिव्राजन कर रहा हूँ। वह पाकर रहूँगा, या देहपात कर दूंगा।' ___'धन्य हो, धन्य हो, हे श्रमण गौतम ! वचन दो कि बुद्धत्व लाभ कर सर्वप्रथम राजगृही में आओगे। सर्वप्रथम मुझ ही उसका उपदेश करोगे।'
'तथास्तु राजन् ।'
'मेरा आतिथ्य स्वीकारोगे। मगध के राजकीय श्रमणागार को दान में ग्रहण कर, उसे चिरकाल सुशोभित. करोगे।' _ 'ऐसा ही होगा, भम्भासार श्रेणिक !'
और एक मधुर कोमल स्मित के साथ शाक्यपुत्र गौतम उद्बोधन का हाथ उठा, मुझ से बिदा हो गया था। कितना गहरा आश्वासन था उसकी
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