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उस उद्बोधन मुद्रा में, उसकी उस महाकारुणिक दृष्टि और माधुरी मुस्कान में ।
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और दूसरी ओर तुम हो, श्रमण वर्द्धमान । प्रथम दर्शन से आज तक अविभंग, अचल, वज्र - कठोर मन्दराचल । मेरी और चेलना की सारी प्रार्थनाओं और आँसू भरी विनतियों को निरन्तर ठुकराते ही चले गये । मगध की सारी महारानियों के, अपनी राह में फैले आँचलों को तुमने रौंदने योग्य तक नहीं समझा । राजगृही के देव-दुर्लभ वैभव को तुमने आँख उठा कर तक नहीं देखा। मेरे हर दान और अर्पण की तुमने अवहेलना कर दी । मेरे सर्वस्व समर्पण तक को तुमने अस्वीकार कर दिया । मेरे अस्तित्व तक को तुमने नकार दिया ।
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ऐसे अस्खलित दुर्दान्त तपस्वी होकर भी भयंकर वीतरागी हो कर भी, शायद तुम यह न भूल सके कि तुम वैशाली के राजपुत्र हो ! कि तुम अजित सूर्योदयी इक्षुवाकुवंश के आज अप्रतिम प्रतापी वंशधर हो। तुम यह न भूल सके कि मैं वह मगध सम्राट भंभासार श्रेणिक हूँ, जो वैशाली को अपनी एड़ी से रौंद कर आसमुद्र पृथ्वी का चक्रवर्ती होना चाहता हूँ । तुम्हें मेरे भावी चक्रवतित्व से ईर्ष्या है । तुम मुझे अपना अनन्य प्रतिस्पद्ध मानते हो। तुम मेरे ऊपर हो कर अपना चक्रवर्तित्व स्थापित किया चाहते हो। तुम मुझे कुचल देना चाहते हो ।
'लेकिन, लेकिन, जानो महावीर, शाक्यपुत्र सिद्धार्थ गौतम बुद्ध ने मुझे अपनाया है । आश्वस्त किया है । मेरे भूदान को स्वीकारा है । एक दिन वुद्ध की बोधिसत्व-प्रभा से राजगृही के चैत्य-कानन जगमगा उठेंगे। तुम्हीं तो अन्तिम नहीं, निग्गंठ नातपुत्त, महावीर ! एक एक बढ़कर ज्ञानी, बुद्ध, तीर्थंकर इस धरातल पर विचर रहे हैं । तुम्हीं अन्तिम क्यों ? शाक्यपुत्र सिद्धार्थ गौतम क्यों नहीं ?
'ओह ओह, यह एकाएक क्या हुआ ! मेरे पैरों तले की धरती गायब हो गई। मेरे माथे पर का आकाश हट गया है । अन्तरिक्ष में प्रलयंकर विप्लव की पगचापें धमक रही हैं । ऋजुबालिका नदी की लहरों में लपटें उठ रही हैं। बिजलियाँ तड़क रही हैं । अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड हिल रहे हैं।
महावीर, महावीर, महावीर बहिया में मुझे अकेला छोड़ तुम लौट आओ महावीर ! तुम, केवल
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- यह तुमने क्या किया ? कहाँ अन्तर्धान हो गये ? तुम । और कोई नहीं
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इन कल्पान्त की
जहाँ भी हो,
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