________________
२८३
विहार कर चुके थे। मेरी अपनी ही प्रभुता की भूमि में, कई बार मुझे पीठ दे कर मेरी अवहेलना कर चुके थे।
'याद आ रहा है, शरद ऋतु का वह सुन्दर सवेरा। मैं अपने राजमहालय के वातायन पर खड़ा, अलक्ष्य भाव से नीचे की ओर ताक रहा था। तभी अचानक राजगृही के भव्य राजमार्ग पर, काषाय चीवर धारण किये एक तुंगकाय युवा संन्यासी आता दिखायी पड़ा। अभिजात पुरुष -सौन्दर्य की पराकाष्ठा । दूध सी उज्ज्वल सुकुमार राजसी काया पर, केवल एक अखंड गैरिक वसन । अन्तर्वासक ही कन्धे पर चढ़कर उत्तरीय हो गया है। मुंडित विशाल मस्तक, क्षितिज-सा लालट । नंगे पैर । हाथों में भिक्षा पात्र उठाये, यह कौन राजेश्वर राजगृही में भिक्षाटन कर रहा है ? • • •
देखा, सारा नगर उस पुरुषोत्तम के रूप को देखने के लिये संक्षुब्ध हो उमड़ पड़ा है। मानों स्वयम् अच्युत स्वर्ग का शकेन्द्र राजगृही के राजमार्ग पर चल रहा है। मानो असुरेन्द्र ने मेरी राजनगरी में प्रवेश किया है।
गजपुरुषों ने आकर मुझसे कहा :
'देव यह कौन स्वर्ग-निर्वासित देवता राजागृही में घूम कर मधुकरी मांग रहा है। यह देव है या मनुष्य है, नाग है या गरुड़ है, कौन है-हम नहीं जानते। स्वयम् ईशानेन्द्र आपके नगर में भिक्षाटन कर रहा है। हमारी वुद्धि गुम है। हम इसके साथ कैसा व्यवहार करें ?'
मैंने आज्ञा दी :
'जाओ, देखो तो, यदि अ-मनुष्य होगा, तो नगर से निकल कर अन्तर्धान हो जायेगा, यदि देवता होगा, तो आकाश-मार्ग से चला जायेगा, यदि नाग होगा तो देखते-देखते पृथ्वी में डुबकी लगा कर लुप्त हो जायेगा, यदि मनुष्य होगा तो कहीं वन के एकान्त में जाकर मिली हुई मधुकरी का भोजन करेगा।'
राज्य के अनुचरों ने दूर-दूर रह कर, छुपे-छुपे चुपचाप भिक्षुक का अनुसरण किया। कुछ समय बाद आ कर उन्होंने नमित हो मुझसे निवेदन किया :
'परम भट्टारक, स्वल्प मधुकरी को इत्यलम् कह कर वह भिक्षुक नगर के प्रवेश-द्वार से ही बाहर निकल गया। पाण्डव-पर्वत की छाया में पूर्वाभिमुख बैठ कर वह भोजन करने लगा। उस समय ऐसा लगा कि उसकी
आँतें उलट कर मानो बाहर आ रही हैं। उस प्रतिकूल भोजन से पीड़ित हुए अपने मन को फिर वह यह कर समझाने लगा-'सिद्धार्थ, तू अन्न-पानसुलभ कुल में, विपुल राज्यश्वर्य के बीच पला है। तीन वर्ष के पुराने,
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org