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'तुम्हारा पिता उस राजगृही नगरी का गोपाल है, जहां की उज्ज्वल भी अमावस्या के अन्धकार में भी चाँदनी की तरह चमकती हैं।'
___विचक्षण तेजस्वी अभयकुमार की आँखों में एक बिजली-सो कौंध गयी, और एक सम्पूर्ण भव्य नगरी और उसका अधीश्वर साकार हो उठा। माँ को बेटे के आगे हार मान लेनी पड़ी।
और कई महीनों बाद एक प्रातःकाल अभयकुमार का रथ राजगृही के तोरण द्वार पर आ खड़ा हुआ। · · · डाल-पके आम-सी रसभार-नम्र नन्दश्री मुझे सम्मुख पाते ही, दूर पर ही आँचल पसार कर प्रणिपात में नत हो गई। यह मेरे लिये शक्य न रहा कि उस आँचल को मैं शिरोधार्य न करूं। • · ·और तभी नन्दा ने मासूम सिंह-शावक-से अभय को मेरी फैली बाँहों में अर्पित कर दिया।
· · ·और आज अभय राजकुमार की कनिष्ठा ऊँगली पर मगध का साम्राजी भाग्य झूल रहा है। और आज श्रेणिक को जगत की सारी महिमाएँ प्रणाम कर रही हैं।
कुशाग्रपुरी के राजमार्ग पर उस दिन जो अबोध कुमार भम्भा-वाद्य फूंकता हुआ निकल गया था, उसे क्या पता था कि उसके उस जय-निनाद ने अंतरिक्ष की अदृश्य पर्तों में आगामी भूगोल के नये नक्शे छाप दिये हैं।
उस अबोध वय से आज तक की अपनी सारी विजय-लेखाओं पर जो दृष्टिपात करता हूँ, तो आश्चर्य से दिङगमूढ़ हो रहता हूँ। नहीं याद आ रहा, कि उस भोलभाले अवहेलित राजपुत्र के मन में कोई कामना. कांक्षा या अभीप्सा रही होगी।
__ जीवन की राह में, जो भी संकट, बाधा या चुनौती सामने आई, उस पर निपट निरीह लीला-खेल के भाव से ही तो विजय पाता चला गया हूँ। खेल-खेल में ही मानो धरती और आकाश के नित-नये पटल उलटता चला गया हूँ। मेरी ऊँगली के बेसारूता घुमावों पर जैसे इतिहास मेरी मनचाही करवटें बदलता चला गया है। वृहद्रथ और जरासन्ध की साम्राज्यपरम्परा मेरे शिशुनागवंशी रक्त में नये सिरे से आगे प्रवाहित हो गई है। महाचीन, सुवर्णद्वीप और ताम्रलिप्ति से लगा कर, पारस्य, मिस्र और सुदूर यवन -देश यूनान तक के भूपट और सागर-तट श्रेणिक भंभासार के दिग्जयी भम्भानाद से अपने सीमान्त बदल रहे हैं। आर्यवर्त के सोलहों महाजनपदों की नियति श्रेणिक के खड़ग की नोक पर टॅगी हुई है।
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