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________________ २७९ गयीं थीं । • एक साँझ गोधूलि बेला में, राजसी दलबल सहित एक भव्य राजरथ हमारे द्वार पर आ खड़ा हुआ । सारथी ने एक सन्देश पत्र मेरे सम्मुख प्रस्तुत किया। उसमें लिखा था कि राजगृही के महाराज उपश्रेणिक प्रसेनजित मृत्यु शैया पर मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं। मैं जहाँ भी हूँ, वहाँ से तत्काल इस पवन-वेगी रथ पर चढ़ कर चला आऊँ । राजगृही के पंचशैल श्रेणिक को पुकार रहे हैं । आदि । मुझे लेने आये राज-सेवकों ने यह भी बताया कि, अब से एक वर्ष पूर्व अस्वस्थ होने पर महाराज उपश्रेणिक ने चिलाति को गद्दी पर बैठाया था। पर उस उद्दण्ड गर्वीले किरातिनी-पुत्र ने ना कुछ समय में ही क़हर बरपा कर दिया। उसके अत्याचारों से प्रजा त्राहिमाम् पुकार रही है । राजगृही की जाएँ श्रेणिक भंभासार को गुहार रही हैं। मैंने नियति के इस अटल विधान को पढ़ लिया । तुरन्त नन्दा और राजपुरोहित सोमशर्मा को संक्षेप में सारी स्थिति का सम्यक् बोध करा दिया । 'उस रात नन्दश्री के भीतर की गहन मर्मगुहा में जहाँ मैं समर्पित हुआ, वहाँ एक अलौकिक तेज की शलाका खड़ी देखी। उस क्षण जीवन में पहली बार एक नारी के पगतल को चूम लेने को मैं अकुला उठा । पर मेरे पौरुष-गर्व ने मुझ पर एक अर्गला सी डाल दी । प्रातःकाल प्रस्थान की बेला में मानो नन्दश्री नये सिरे से मेरा परिचय पूछ उठी । उन मौन-मुग्ध नयनों में मैंने पढ़ा : 'पन्थी, फिर कब लौटोगे ? ओ अतिथि, अपना नाम-गाँव, पता तो बता जाओ ! ' नन्दा के कुन्तल छाये कन्धे पर हाथ रख कर मैंने इतना ही कहा : 'देवी, जहाँ की उज्ज्वल भीतें अमावस्या की रात में भी चाँदनी-सी चमकती हैं, उसी राजगृही नगरी का मैं गोपाल हूँ ।' और पलक झपकाते में मेरा रथ उत्तरापथ के मार्ग पर आरूढ़ हो गया । 'मेरे आगमन का संवाद दूर से ही सुनकर, राजगृही नगरी नवेली वधू-सी सज कर जयमाला लिये प्रस्तुत हुई । पर उस सारे गौरव सम्मान की अवहेला कर, मैं चुपचाप पिछले द्वार से राजमहालय में प्रवेश कर सीधा रोग-शयारूढ़ महाराज-पिता के समक्ष जा उपस्थित हुआ । जीर्ण-शीर्ण राजा पश्चाताप की व्यथा में रात-दिन जल रहे थे। मुझे सामने पाते ही वे चैतन्य से हो आये । एकाएक उठ बैठे और बाँहें फैला कर आॠन्द करते-से मानों उन्होंने मेरे पैरों पर ढलक आना चाहा। मैंने उन्हें उठा कर आलिंगन में बांध, बहुत मुदता से शैया पर लिटा दिया। उनके चरण-स्पर्श को उबत Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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