________________
२७८
बूझ से वहां की अनेक राजकीय गुत्थियाँ सुलझ गईं। वहां के अंजनगिरि पर्वत पर स्थित सहस्रकूट चैत्यालय के वज्र-कपाट आज तक कोई खोलने में समर्थ न हो सका था। मेरे ललाट के स्पर्श मात्र से वे कपाट खुल गये । उस कारण राज्य में अपूर्व पुण्य और ऐश्वर्य प्रकट हुआ। वेणातट की राजपुत्रियाँ मुझ पर निछावर हुईं। पर मेरी हृदय-गुहा का भेदन करने में कोई सौन्दर्य, कोई सम्पदा कारगर न हो सकी। • इससे पूर्व की यात्रा में भी कितने न मुकुट मझे झके, कितनी न रूप-यौवन की राशियाँ मेरे चरणों में बिछीं। पर मेरे हृदयपद्म पर कुण्डली मार कर बैठे अहं-पुरुष के नागचूड़ को कोई टस से मस न कर सका।
· · · लेकिन वेणातट नगर के राजपुरोहित और मेरे आतिथेय सोमशर्मा की पुत्री नन्दश्री ने हार नहीं मानी। जगत के सारे गर्वी पुरुषार्थों के उन्नत मस्तकों के ऊपर, उसने मेरे मस्तक को मृत्यु की तरह अटल, भयानक और उत्तान देखा। अपने उस स्वप्न-दर्शन को, उसने मुझे एक दिन एकान्त में कह सुनाया । अपनी आत्मा की गुफ़ा में से वह मानो आकाशवाणी तरह बोल उठी :
___ 'देवानुप्रिय अतिथि, मैंने प्रातः सायं की अनेक सन्ध्याओं में तुम्हें गिरि-शृंगों पर अष्टापद की गरिमा से छलांग भरते देखा है। जगत के सारे विजेताओं और योद्धाओं को तुम्हारे पादप्रान्त में पंक्तिबद्ध वामनों की तरह हततेज, पराजित, सर झुकाए खड़े देखा है। • ब्राह्मणबाला नन्दश्री तुम्हारे उस आगामी चक्रवर्ती सिंहासन के अर्द्धभाग की अधिकारिणी होना नहीं चाहती। मत करो तुम मेरा वरण, मत ब्याहो मुझे। केवल एक बार भरपूर मेरी ओर देखो। और अपने चरणों की रज मुझे दे जाओ। फिर चाहे कहीं जाओ, चाहे कुछ करो, चाहो तो मुझे भूल जाओ। पर मैं अन्तिम श्वास तक तुम्हारी कुंवारी रानी हो कर रहूँगी। . .'
सुन कर मेरे भीतर का पर्वत-वीर्य पसीज आया। उस सान्ध्य द्वाभा में भरपूर मैं उस पद्माभ बाला की अनन्तभरी चितवन में देख उठा। उसकी दोनों आयत्त कृष्ण-कमल आँखों में उसके अतल के दो आँसू उजल आये। और वह मेरे पैरों में कल्प-लता सी लिपट कर फूट पड़ी।
.. वेणातट नगरी की राजसभा में श्रेणिक के तेज, गौरव और देदीप्यमान पौरुष को देखने के लिए, सारे दक्षिणावर्त के तेजोधर और वैताढ्य गिरि के विद्याधर चक्कर काटते थे। नन्दश्री की चन्दनी आंचल-छाँव में सपनों की तरह जाने कितना काल बीत गया ।
इस बीच मेरे अनजाने ही, मेरे प्रताप और पराक्रम की कीर्तिगाथाएँ हवाओं पर चढ़ कर उत्तरावर्त के सुदूर पूर्वीय छोरों तक भी पहुँच
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org