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'जिसके घर में अग्नि प्रकट हो, उसे नगर त्याग कर चले जाना होगा।' स्वयम् अपनी ही इस राजाज्ञा के अनुसार महाराज उपश्रेणिक प्रसेनजित ने नगर-त्याग कर दिया। अपने समस्त राजपरिकर सहित, वे नगर से एक योजन दूर, पूर्वारण्य में छावनी डाल कर बस गये । कुशाग्रपुर के प्रजाजन आये दिन महाराज के दर्शनार्थ छावनी में जाते रहते । वे किसी संज्ञा के अभाव में राजा के इस नये घर को 'राजगृह' कह कर पुकारने लगे। ना कुछ समय में ही वहाँ राजगृह नाम का एक सुरम्य नगर बस गया। प्राचीर, परिखा, दुर्ग, अनेक भव्य प्रासादों, उद्यानों, अन्तरायणों, चौक-चौराहों से वह सज्जित हो गया।
__ सब व्यवस्थित हो जाने पर, एक दिन महामंत्री यशोविजय ने मुझे एकान्त में ले जाकर समझाया कि अपने बल-पराक्रम और बुद्धिमत्ता से मैंने जो अपना राज्याधिकार सिद्ध कर दिखाया है, उससे सारे ही राजपुत्र मेरे शत्रु हो उठे हैं। किरातिनी-पुत्र चिलाति के नेतृत्व में वे सब मिल कर मुझे मारने का षड्यंत्र रच रहे हैं। महाराज उपश्रेणिक चूंकि मुझे ही सिंहासन का योग्य अधिकारी मानते हैं, इस कारण मेरी प्राण-रक्षा के लिए वे अत्यन्त चिन्तित हैं। इसी से महाराज का यह प्रस्ताव है कि मैं कुछ काल के लिए चुपचाप विदेश-गमन कर जाऊँ । राज्यारोहण का ठीक मुहूर्त आने पर मुझे बुला लिया जायेगा । मैं यह सब सुनकर हतबुद्धि, ठगा-सा रह गया। मानों मुझे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। मंत्रीश्वर प्रवास-खर्च के लिये मुझे देने को विपुल सुवर्ण-रल की थाती लाये थे। उसे लेने को मेरी अन्तर-आत्मा ने इनकार दिया। उसकी ओर मैंने आँख उठा कर भी नहीं देखा। बिना एक भी शब्द कहे, मैं क्षण मात्र में वहाँ से चम्पत हो गया। मंत्रीश्वर का विद्युत वेगी घोड़ा भी फिर मेरी गमन-दिशा का कोई अनुसन्धान न पा सका। . .
· · · यात्रा की राह में जिस भी पुर, पत्तन, नगर, ग्राम से गुज़रा, सर्वत्र ही विजय और लक्ष्मी मेरा वरण करने को जयमाला लिये सामने आयी । मेरे बल, बुद्धि, पराक्रम के अनेक प्रासंगिक करिश्मों से नर-नारीजन मुग्ध-चकित रह जाते। मेरी राह में सारी वसुधा की सम्पदा और विभूतियाँ आकर पड़तीं। पर मेरा मन इतना विरक्त, उदास और रुष्ट हो गया था, कि कांचन और कामिनी के सारे प्रलोभनों को अपनी एक खामोश चितवन से ठुकरा कर, अपनी राह पर निरुद्देश्य, निर्वृद्व बढ़ता ही चला जाता।
· · · एकदा वेणातट नगरी के राजपुरोहित सोमशर्मा के यहाँ मेहमान हुआ। उनके कारण वहाँ के राज-दरबार में भी भारी सम्मान पाया। मेरी सूझ
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