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________________ २७६ विचरता रहता था। मेरी मां भी मेरी ही तरह सरल और लगभग अज्ञानिनीसी थी। मेरे पराक्रम और विजय की वार्ताएं सुन कर वह हर्ष से रो आती और मुझे गोदी में चाँप कर मौन-मौन ही चुम्बनों से ढाँक देती। उसे भी क़तई नहीं मालूम था कि उसका प्राणाधिक प्रिय पुत्र राजपिता की राह का रोड़ा हो गया था। और उसे उखाड़ फेंकने में सारे राजचक्र की शक्ति संलग्न और केन्द्रित हो गई थी। मैं कुछ इतना निर्मोह और बेपर्वाह भी था, कि माँ की लाड़-प्यार भरी बाँहों और क्रोड़ के सारे बंधन झटक कर, ख़तरों और संकटों की टोह में ही मुझे मज़ा आता था। चहुँ ओर ज्वालाओं से आक्रान्त राजभवन में प्रवेश कर राजसिंहासन को अक्षत बचा लाने की आघोषणा जब हुई, तब भी मेरे हृदय में राज्या'धिकार पाने की कोई वासना रही हो, ऐसा तो रंच भी याद नहीं आता । इतना ही याद आता है, कि यह चुनौती मुझे भयानक रूप से आकर्षक और अनिर्वार लगी थी। अन्य सारे ही कुमार इसे सुन कर थर्रा उठे थे, और मुँह बचा कर अपनी-अपनी राह भाग निकले थे। मुझे एक अजीब कौतुक -कौतूहल का बोध हुआ, और मेरे मन में एक मज़ाक़ का अट्हास-सा गूंज उठा । मैं चुपचाप खिसक कर नगर के एक शस्त्र-शिल्पी लोहकार के यहाँ । चला गया। उसे अपना एक महामूल्य मुक्ताहार दे कर, उससे पूरे शरीर का एक फौलादी कवच और शिरस्त्राण प्राप्त कर लाया। · अगले दिन बड़ी भोर ही, कवच तथा शिरोटोप से सज्जित हो कर, पिछले द्वार से राजभवन में धंस गया, और अनेक प्रकोष्ठों और उपद्वारों को मरणान्तक संघर्ष के साथ पार करता, राजासभा-गृह में पहुंच गया। सुवर्ण का राजसिंहासन अब भी लपटों की छाया में अछूता पड़ा था। मानो कि मुझ में कोई पैशाचिक शक्ति बेफाम उद्वेलित हो रही थी। एक ही छलांग में सिंहासन पर जा कूदा, और दोनों हाथों से उसे मस्तक पर धारण कर मुख्य राजद्वार से बाहर आता दिखाई पड़ा। पलक मारते में सारे कुशाग्रपुर नगर की प्रजा वह दृश्य देखने को उपस्थित हो गई। हज़ारों नरनारी के अश्रु-विगलित कण्ठों की जयकारों ने मुझे ढाँक दिया। सिंहासन मस्तक से उतार कर मैंने महाराज पिता के चरणों में अर्पित कर दिया। महाराज ने अपने गाढ़ आलिंग में मानो मुझे कुचल-कुचल दिया। उनके उस निगढ़ वात्सल्य-पीड़न का वह रोमांचन, मेरे रोमों में आज भी एक अद्भुत रहस्य की फुरहरी पैदा कर देता है। वे मुझे आलिंगन में मौत देना चाहते थे, या अमर जीवन का आशीष, यह मैं आज भी बूझ नहीं पाता हूँ। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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