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'इस घड़ी मेरे महल में से, जो कोई कुमार, जो भी वस्तु निकाल ले जायेगा, वही उसकी अपनी सम्पदा हो जायेगी।
सभी राजपुत्र अपनी-अपनी रुचि के अनुसार अनेक महामूल्य वैभवसामग्रियां लेकर भाग निकले। लेकिन विचित्र थी मेरी खोपड़ी, कि मैं एक भम्भा-वाद्य ले कर उसे फूंकता हुआ, सरे राह नगर से बाहर हो गया। राजा ने मुझे पकड़ बुलवा कर पूछा :
__'श्रेणिक बेटे, दुर्मूल्य रत्न-खजाने छोड़ कर, तू भला यह तुच्छ भम्भा-वाद्य ले कर क्यों निकल पड़ा होगा ?'
मैंने कहा : 'तात, यह भम्भा-वाद्य राजाओं का सर्वप्रथम जय-चिन्ह है। इसको फूंकने पर राजाओं की दिग्विजय में महान मंगल होता है। इसी से किसी भी राजा को सर्वप्रथम इसी की रक्षा करनी चाहिये ।' . .'
मेरे मुख से इस महेच्छा का उद्घोष सुन कर महाराज प्रकटतः बड़े प्रसन्न गर्व से बोले : 'जान पड़ता है, उपश्रेणिक के वंश में चक्रवर्ती सम्राट का जन्म हो चुका है। निश्चय ही श्रेणिक कुमार दिग्विजय करेगा। मैं आज से इसका नाम श्रेणिक भम्भासार घोषित करता हूं।'
कुशाग्रपुर के राजभवन को इस भयानक अग्नि-काण्ड से बचाने के सारे उपाय निष्फल हो रहे थे। पानी की बौछारों द्वारा बाहर से आग अवश्य बुझी लग रही थी, पर भीतर के भागों में वह अनिवार्य रूप से गहरी और
अधिकाधिक विनाशक होती चली जा रही थी। मानो कि कोई दैवी प्रकोप हुआ हो, और सारे कुशाग्रपुर के भूगर्भ में जैसे कोई ज्वालामुखी अन्दर ही अन्दर धधक रहा हो । दैवज्ञ ब्राह्मणों ने निर्णय प्रस्तुत किया, कि शान्ति के अनुष्ठान में देवी आदेश प्राप्त हुआ है कि : 'जो कुशाग्रपुर का भावी राजा हो, वह जलते राजभवन में घुस कर यदि राजसिंहासन को सुरक्षित निकाल लाये, तो विपल मात्र में ही अग्नि-देवता शान्त हो जायेंगे।'
तब मैं क़तई नहीं जानता था कि यह मेरे विरुद्ध आयोजित षड़यंत्रों की एक सुनियोजित शृंखला थी। और अब जब मैं सारी परीक्षाओं में अपराजेय रूप से सफल सिद्ध हो चुका था, तो यह अन्तिम परीक्षा मुझे जीते जी जला देने का ही एक अचूक षड़यंत्र था। अपने राज्याभिषेक के बाद ही, मैं वरिष्ठ राजमंत्रियों के मुंह से इन गप्त दुरभिसंधियों की सारी लोमहर्षक वार्ता सुन सका था ।
___ मैं स्वभाव से ही बहुत भोला और सीधा था। तब तो में इसकी गन्ध भी नहीं पा सका था, कि कोई व्यवस्थित परीक्षाओं का क्रम चल रहा है । अत्यन्त निरीह, अबोध, अपने में ही खोया-खोया अपने एकान्तों में
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