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________________ २७४ ली जाये। और उस दौरान अनेक दांव-पेंचों से श्रेणिक को अयोग्य ठहरा दिया जाये। अन्य राजपुत्रों को तो संतमेत में उड़ा दिया जायेगा। सो कई परीक्षाओं का आयोजन हुआ। __ पहली परीक्षा यह हुई कि सारे राजपुत्रों को एक साथ भोजन पर बैठा कर उनके सामने पायसान्न के थाल धर दिये गये। जब सब कुमार खाने लगे, तो उन पर व्याघ्र की तरह मुंह फाड़ कर आते श्वान छोड़ दिये गये। अन्य राजकुमार तो तत्काल भयार्त हो कर भाग खड़े हुए। पर मैं अकेला बहुत ही आराम-इतमीनान से बैठा भोजन करता रहा। मैं अन्य छूटे हुए थालों में से थोड़ा-थोड़ा पायसान्न श्वानों को देता रहा । श्वान उसे चाटने में मशगूल हो रहे, और मैं अपने भोजन में अविचल तल्लीन हो रहा । देखकर महाराज पिता स्वयं मुग्ध-विस्मित हो रहे । प्रकटतः बोले कि निश्चय ही यह श्रेणिक कुमार हर किसी उपाय-चातुरी से शत्रुओं का निरोध कर सकेगा, और निर्भय भाव से पृथ्वी को भोगेगा। एक और बार अचानक ऐसा हुआ कि महाराज ने सब कुमारों को एकत्रित कर मोदक से भरे करंडक और पानी से भरे घड़े मुद्रित करवा कर, सबके सामने प्रस्तुत कर दिये। फिर राजाज्ञा हुई कि इन करंडकों में से मुद्रा तोड़े बिना ही मोदक खाओ, और इन घड़ों में से बिना छिद्र किये ही पानी पियो । अन्य सारे राजपुत्र हतबुद्धि, गुमसुम, किंकर्तव्य विमूढ़ हो ताकते रह गये। मुझे जाने क्या सूझा कि मैंने मोदकों के करंडकों को खूब जोरों से हिला-हिला कर, मोदकों का चूरा कर डाला । तब करंडों की खिपच्चियों में से खिरा-खिरा कर मोदक-चूर्ण प्रेमपूर्वक खाने लगा। उसके बाद , चांदी के स्तवक जल भरे घड़ों के नीचे रख कर, माटी के छिद्रों में से सहज झर रहे जल को एकत्र कर उसे सुखपूर्वक पीने लगा। महाराज उपश्रेणिक गद्गद स्वर में मुखर हो उठे : 'निश्चय ही श्रेणिक कुमार एक दिन अपनी कुशाग्र सूझबूझ से अभेद्य को भेद कर, कुशाग्रपुर को सर्वोपरि राजसत्ता बना देगा।' एकदा कुशाग्रपुर में बारंबार अग्नि का उपद्रव होने लगा। तब महाराज प्रसेनजित ने आघोषणा करवाई कि : 'आगे से इस नगर में, जिसके भी घर में पहले आग लगेगी, उसे रोगी ऊँट की तरह नगर में से निकाल बाहर किया जायेगा।' योगायोग कि एक दिन रसोइये के प्रमाद से हमारे राजमहालय की पाकशाला में से ही आग की लपटें फूट पड़ीं। जब अग्नि-ज्वालाएँ नियंत्रण से बाहर हो, चारों ओर फैल चलीं, तब राजा ने अपने कुमारों को आज्ञा दी कि : Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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