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________________ २७३ ला कर अपनी विद्युन्मती नामा रानी की सेवा-सुरक्षा में रख दिया। उस अवधि में भीलराज की पुत्री तिलकमती की सुकोमल सेवा-शुश्रूषा और मधुर रसवती के भोजन से राजा ने अपूर्व स्वास्थ्य और नवजीवन का अनुभव किया । .. ___ ऐसे प्रतापी राजा को अपनी पुत्री के प्रति अनुरक्त जान भीलराज गदगद् हो गया। तिलक के पाणिग्रहण को उद्यत उपश्रेणिक के समक्ष यमदण्ड ने शर्त रक्खी कि यदि तिलकमती का पुत्र कुशाग्रपुर की गद्दी का वारिस हो सके, तो राजा सहर्ष उसे ब्याह ले जायें।· · ·और यों तिलकमती कुशाग्रपुर की पट्टमहिषी हो गई। यथाकाल उसकी कोख से चिलाति नामा पुत्र जन्मा : विशाल कुशाग्रपुर राज्य का भावी राजा।। __अनगिनती राजपुत्रों के बीच मैं किससे बड़ा या छोटा था, याद नहीं। इतना ही याद है कि उन सब के बीच सबसे बड़ा ही दिखाई पड़ता था। डील-डौल कैसा था, कितना बलशाली था, इसकी भी कोई कल्पना नहीं । लेकिन स्पष्ट देखता हूँ आज भी, कि सब से ऊँचा और अनहोना था। कई मुण्डों के बीच ऊपर उठा अपना तरुण भव्य मस्तक और मैदानसा विस्तृत ललाट आज भी देख पाता हूँ । आसमान को चुनौती देता हहराते जंगल-सा उन्नथ माथा । और चौड़े वृषभ-स्कन्धों पर झूलती अलकावलियों में जैसे हाथो लूमते-झूमते चलते थे। खेलों में हो, कि घुड़दौड़ में हो, कि भेदी भयावने जंगलों में रास्ता खोजने की होड़ में हो, कि नदी सन्तरण में हो, कि दुर्लभ को पा लेने के दावों में हो, कि पहाड़ और नदियाँ लाँघने की प्रतिस्पर्धाओं में हो, कि मल्ल-विद्या में हो, कि भयानक अलंघ्य को लांघनेफाँदने में हो, सारे ही साहसों और पराक्रमों में सब से आगे अजेय और ऊपर ही दीखता था। - भील-रानी का जाया, बेहद लाड़ों में लालित-पालित चिलाति मेरी इस बलवत्ता और गरिमा को देख कर रो-रो देता था। अन्य राजपुत्र आये दिन की मेरी विजयों पर जब मेरा जयजयकार करते, तो चिलाति ईर्ष्या से जल कर बिलबिलाता हुआ अपनी किरातिनी पटरानी माँ और महाराज उपश्रेणिक की गोदी में जा दुबकता और तरह-तरह से मेरी झूठी चगलियाँ खाता, शिकायतें करता । ___ महाराज-पिता भारी चिन्ता में पड़ गये । उजागर रूप से उद्दण्ड प्रतापी युवराज श्रेणिक के सम्मुख होते, दीन-दुर्बल चिलाति को कुशाग्रपुर की गही पर कैसे बैठाया जा सकता है। मन ही मन वे छीजने लगे कि साँवलीसलौनी तिलकमती को दिया वचन कैसे पूरा हो । बुद्धिमान मंत्रियों ने उपाय सुझाया कि गद्दीधर की पात्रता का निर्णय करने के लिये राजपुत्रों की परीक्षा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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