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________________ २७२ वह आज कई-कई महीनों से इस अकिंचन तापस के चट्टानस्थ चरणों में टकटकी लगाये बैठा है । · कि कैसे इन पैरों को अपनी भूमि पर से उखाड़ कर, अपनी विश्वजयी हस्ती को फिर से क़ायम कर सकूँ । मगर कोई उपाय नहीं है। अपनी अन्तिम हार की इस महावेदना में अपने समूचे भूतकाल को दुहरा रहा हूँ। फिर से उसके हर पल को जी रहा हूँ। और अपने विगत जीवन के इस सिंहावलोकन में पाता हूँ, कि अपने को कभी किसी से छोटा तो श्रेणिक में जाना ही नहीं। स्मृति जागने के पहले दिन से आज तक, श्रेणिक मनुष्यों के बीच सदा सर्वोपरि रहा, सर्वश्रेष्ट रहा, सर्वज्येष्ठ रहा । याद के पहले क्षण से पाता हूँ, सबसे बड़ा, श्रेष्ठ और अपराजेय ही रहा हूँ। सबसे बड़ा ही जन्मा, सबसे ऊपर ही सदा जिया । जीवन के प्रथम प्रभात से अब तक की एक-एक घटना याद आ रही है। उस पूरे इतिहास में अपनी महिमा को सर्वत्र अजित, अक्षुण्ण और अपराजेय ही देखता हूँ। __ कुशाग्रपुर के राजा उपश्रेणिक प्रसेनजित मेरे पिता थे। ऐसे दुर्दण्ड महाबनी कि उनके एक भ्रनिक्षेप पर ही, अनेक नरपति और राज्य उनके माण्डलिक हो रहे । जिस भूमि को उन्होंने जीता, उसकी श्रेष्ठ सुन्दरियाँ उनकी अन्तःपुरिकाएं हो रहीं । उनके अनेक राजपुत्रों में एक मैं भी था। ऐसे अप्रतिहत पथ्वीपति का आधिपत्य स्वीकारने को, अभिमानी राजा सोमशर्मा ने इनकार कर दिया। प्रसेनजित के अहम् को चोट दे सके, ऐसा तो कोई जगत में जन्मा नहीं। महाराज-पिता स्वयम एक छोटा-सा सैन्य लेकर सोमशर्मा पर चढ़ धाये। चुकटी बजाते में चन्द्रपुराधीश्वर सोमशर्मा को पराजित कर, बन्दी बना लाये। ससम्मान उसे अपने दरबार में माण्डलिक पद पर अभिषिक्त किया। प्रकटतः सोमशर्मा ने आधिपत्यि स्वीकारा । लेकिन उम हार के काँटे ने उसे चैन न लेने दिया । अपने राज्य में लौट कर सोमशर्मा ने उपश्रेणिक को भेंट स्वरूप कई महाघ वस्तुएँ भेजीं। उनमें एक अश्व-रत्न भी था। लेकिन कुटिल था यह घोड़ा, और सीख के अनुसार शत्रु को मृत्यु-मुख में ढकेल देता था। उपश्रेणिक घोड़े के भव्य वाहन-रूप पर मुग्ध हो, एक दिन उस पर चढ़ कर अकेले ही जंगल में आखेट को निकल पड़े। घोड़ा राजा को अज्ञात दिशा में उड़ा ले गया। महाराज-पिता ने पाया कि वह उनकी वल्गा के काबू से " बाहर हो चुका है। • “एक वीहड़ अटवी में पहुँच कर घोड़े ने राजा को किसी गहरे अँधेरे गव्हर में गिरा दिया और चम्पत हो गया। चोट से कराहते राजा की आवाज़ सुन कर , पास से गुजर रहे एक यमदण्ड नामा किरातपति ने उन्हें बाहर निकाला। राजपुरुष के योग्य सम्मानपूर्वक उन्हें अपने घर लिवा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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