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________________ मैं हूँ, कि नहीं हूँ बेशक, जाने हुए जगत के छोरों तक भटक आया हूँ । पृथ्वी के हर चप्पे पर अपनी महिमा को अपराजेय पाया है। अपने से बड़ा यहाँ कुछ भी देख नहीं सका, पा नहीं सका। फिर भी अजब है कि दिन-दिन छोटा ही पड़ता जा रहा हूँ। वसुन्धरा में जो कुछ दर्शनीय है, वह सब मैंने देख लिया। जो कुछ भोग्य है, वह सब मैंने भोग लिया, जो कुछ प्राप्तव्य है, वह सब कुछ मैंने पा लिया, जो कुछ जीतव्य है, वह सब कुछ मैंने जीत लिया । । लेकिन क्या बात है, कि अपने को एकदम खाली, और खोखला पा रहा हूँ। मेरी अतृप्ति का अन्त नहीं । मेरी दुर्दाम वासना, कुचले हुए शेषनाग के फन को तरह, यहां आकर भूलुंठित पड़ी है, इस नग्न निरीह पुरुष के पैरों तले की मिट्टी चाट रही है। इससे बड़ा अपमान मेरा क्या हो सकता है ? इससे बड़ी मान-हानि जगत में किसी की क्या हो सकती है ? एक रजकण, तृण या पतिगे की भी अपनी यहाँ इयत्ता है। मगर जगज्जयी श्रेणिक अपनी उस अस्मिता तक से वंचित हो गया है। उजागर रहना उसके लिये असाध्य हो गया है, और अपना मुंह छुपाने के लिये ओट पाना भी आज उसके लिये मुहाल है । अपनी इतनी बड़ी हार को ले कर अस्तित्व में कैसे रहूँ, यही आग प्रश्नों का प्रश्न है मेरे सामने । जल, स्थल, आकाश में कहीं ठहरने को मेरे लिये जगह नहीं। ऋजुबालिका नदी के इस तट पर, श्यामाक गाथापति के इस उजड़े उद्यान में, धरती के साथ एकीभूत हो गये इस अवधूत के अचल पंकिल चरणों में भूसात हो रहने के सिवा, और कोई गति श्रेणिक को नहीं रही ? महामंडलेश्वर श्रेणिक की पुण्य-प्रभा कभी कहीं छुपी न रह सको। लेकिन आज उसकी पहचान खो गई है। दिन के भरपूर उजाले में भी दुनिया की कोई आँख उसे पहचान नहीं सकती । सारे जगत की आँखों से वह ओझल हो गया है, सबकी निगाहों में वह खो गया है। मगध जैसे पराक्रान्त साम्राज्य का परिचक्र भी उसे खोज लाने में हार मान गया है। सारी पृथ्वी से निर्वासित हो कर, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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