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________________ २६६ वन में विहार कर रहा था। तभी वैशाली का एक अज्ञात-नाम कवि-चित्रकार, अचानक किसी गन्धर्व की तरह सामने आ खड़ा हुआ। उसके अनधिकारप्रवेश को टोकः सर्वं, उससे पहले ही उसने एक चित्रपट चुपचाप मेरे सम्मुख अनावरित कर दिया। जाने किस छठवीं इंद्रिय से तुरन्त पहचान गया, अरे, यह तो आम्रपाली है ! वही आम्रपाली, जिसकी लावण्य-प्रभा से जम्बूद्वीप के दिगन्न झलमला रहे हैं। और जो मेरा प्रतिपल का दिवा-स्वप्न हो उठी है इन दिनों । और तब कवि ने आम्रपाली के सौन्दर्य का जयगान, जिस रसविदग्ध वाणी में किया, उसके दरद ने मेरे अस्तित्व के मूलों को हिला दिया। · विपुल महामूल्य पुरस्कार पा कर कवि-रूपदक्ष चला गया। नील नदी की नीलागिनी बाला मेरी अन्तर-पीर को थाहने में विफल, उदास हो रही । मैं चुपचाप अत्यन्त उन्मन हो कर अपने महालय लौट आया । . . हाय हायरी, मेरी नियति-नटी वैशाली ! चेलना की चोट क्या मुझे तड़पाने को कम थी, कि तूने एक और चित्रपट खोल कर, मेरे चिर विकल चित्त को यह आखिरी चोट दे दी : आम्रपाली ! इस उच्चाटन के बाद पृथ्वी पर मेरे पैरों का टिकाव जैसे अन्तिम रूप से समाप्त हो गया । ___ अभय ने फिर मेरी उन्मन उदास भटकनों के एकान्तों को ताड़ लिया । बार-बार उसकी सहानुभूति से कातर बिनती भरी आँख मेरे चह ओर फेरी देती दिखाई पड़ीं। • आखिर उसने मेरे मरम की इस पीर का भेद भी जान ही तो लिया। 'चिन्ता न करें वापू, राजगृही की विलास-सन्ध्याएँ अब और सूनी नहीं रहेंगी। उनके चमेली-वातायन पर ऐसी एक लोक-कल्याणी खड़ी दिखायी पड़ेगी, कि सौ आम्रपालियाँ पानी भर जायें. . .!' और तब ऐंद्रजालिक अभय राजकुमार मगध की लावण्य-खानि में से, एक अपूर्व सौन्दर्य-रत्न खोज लाया। सालवती । · नीलकान्ति प्रासाद के माणिक्यवातायन पर जिस साँझ पहली बार सालवती फूलों भरी आरूढ़ हुई, उस क्षण मानो लोकाकाश में एक दूसरे ही चन्द्रमा का उदय हुआ। फाल्गुनी पूर्णिमा की उस पूर्ण चन्द्रिला उत्सव-सन्ध्या में सारे मगध का प्राण पागल हो गया। पल भर को वैशाली की आम्रपाली भी मेरी आँखों में फीकी पड़ गयी। .. ___. उस सालवती को अपने अंगों की अत्यन्त विश्वसनीय पकड़ में समूचा गह कर भी क्या मुझे चैन आया ? तन और मन की यात्रा, किसी दूसरे तन और मन में जितनी दूर हो सकती थी, होने में कोई कसर न रही। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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