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________________ २६७ उसकी चरम फल- श्रुति के रूप में सालवती की कोख से आर्यावर्त को भगवान धन्वन्तरी का एक और अवतार भले ही प्राप्त हो गया, पर क्या मेरे प्राण की विकलता को विराम मिल सका ? ' देखते-देखते में, सारे उत्सव कोलाहल के बीच भी राजगृही की मधु - मालती विलास सन्ध्याएँ फिर मेरे लिये कुम्हला गई। सूनी हो गयीं । और मन्त्रणा - ग्रह की दीवारें मेरी दिग्विजय के नक्शों से अधिकाधिक पटती चली गई। मगध के साम्राजी नक्काड़ों के युद्ध घोष से धरती के गर्भ दहलने लगे । वैशाली - विजय के लिये, या आम्रपाली - विजय के लिये : नहीं, नहीं, जाने हुए जगत के हर सीमान्त पर अपनी दिग्विजय के स्तम्भ गाड़ देने के लिये । पृथ्वी और समुद्र के छोरान्तों का अतिक्रमण कर जाने के लिये ! लेकिन महावीर, ऐसे भयंकर और अनिर्वार हो तुम, कि मेरी दिग्विजय के हर दिगन्त पर तुम्हीं खड़े हो । प्रतिक्षण एक चुनौती मेरे सामने मशाल की तरह जल रही है, कि इस दिगम्बर पुरुष का अतिक्रमण कर जाना होगा ! पर कैसे ? मेरे अन्तर्तम चेतना-कक्ष में एक स्वप्न की सीपी तैर रही है । उसमें बन्द मोती की तरल आभा में शायद विश्राम मिले । अम्बपाली के केशों के • सु.भित अम्बावन भीतर पुकार उठे । और उस रात ताम्रलिप्ति के रत्न-कलाधर ने, हर शैं के लिये बन्द हो गये अम्बा के किवाड़ खुलवा लिये। सामने पड़ते ही. उन आलुलायित घनसार केशों की कस्तूरी छाया में सदा के लिये सो जाने को कैसा विव्हल हो उठा था । पर हाय, मेरे प्यार के उस कल्प-वन में भी तुम्हीं अनिर्वार खड़े मिले, महावीर ! मानो तुम्हें पाये बिना यहाँ का कोई सौन्दर्य, प्यार, साम्राज्य नहीं पाया जा सकता । सत्ता के कण-कण पर तुम्हारा चेहरा छपा हुआ है। तुम्हें पाये बिना न चेलना को पाया जा सकता है न आम्रपाली को, न वैशाली को । " प्रायः ही चेलना के मुख से यही सुनता रहा था कि तुम मुझे वेहद प्यार करते हो, वर्द्धमान ! तुम्हारी जिस विश्वमोहिनी भाव-भंगिमा को चेलना देख आयी थी, उसका वर्णन उसके मुँह से सुनते-सुनते मैं आपा हार गया था। भर-भर आया था। बहुत गहरी आर्द्रता के साथ अनुभव किया था, कि सच ही तुम से अधिक प्यार मुझे कोई नहीं कर सकता । तन्मयता के किसी भी क्षण में श्रेणिक वर्द्धमान हो जाता था, और वर्द्धमान श्रेणिक । और तब घंटोंपहरों तुम्हारे साथ जाने कैसा हृदयहारी सम्वाद चलता रहता था । अपनी इयत्ता को किसी दूसरे जीवित मनुष्य के समक्ष पहली बार विसर्जित हो जाते अनुभव किया था । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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