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________________ २६४ वीतिभय का अधीश्वर उदायन मुझे प्रणामांजलि अर्पित करने लगा। नतीजा यह हुआ कि हिन्दूकुश के दुर्गम्य दरें और पश्चिम समुद्र के पानी मेरी रणहुंकार से थरथराने लगे । ___ . . ' मेरी दिग्विजय के लक्ष्यीभत भूगोल के नक्शे तो अब बनने लगे हैं। वह भी मैंने नहीं, महामात्य वर्षकार और महत्वाकांक्षी कुणीक ने बनवाये हैं । मैंने तो होश में आने के दिन से ही, अपने भीतर केवल एक नामहीन निराकार अनिर्वार आवेग को अनुभव किया था। वह एक संयुक्त महावासना थी, किसी ऐसे अप्राप्य को पाने की, जिसे पाये बिना जिया नहीं जा सकता, जीवन और जगत की सार्थकता को अनुभव नहीं किया जा सकता। मेरे भीतर की वह अविराम आर्त पुकार और पीड़ा प्यार के लिये थी, सौन्दर्य के लिये थी, या साम्राज्य के लिये, मुझे कुछ भी पता नहीं था । मुझ नहीं पता था, मैं क्या खोज रहा हूँ, लेकिन मेरा अबूझ अबोध हृदय जाने किस शै को ढूँढे चला जा रहा था। उसी एकाग्र महावासना का चिर बेचैन सामुद्रिक हिलोलन कभी मेरी बलशाली भुजाओं में सर्वजयी शूरातन बन कर प्रकट हुआ. तो कभी अछूते रूप-सौन्दर्यों का दुर्दाम आलिंगन । एक ओर अपनी दायीं भजा से मैं आसमुद्र पृथ्वी पर अपनी तलवार की बिजलियाँ कड़काता रहा, भूगोल और खगोल की हदों पर अपनी विजय पताकाएँ फरकाता रहा । तो उसी एक संयुक्त क्षण में मैं अपनी बायीं भुजा में पृथ्वी की श्रेष्ठ मुन्दरियों को अपने परिरम्भण-पाश में बाँधता चला गया। हर देश, द्वीप और समुद्र-मेखला की निर-निराली कुमारिका के लावण्य में डुबकी लगाने को मेरा वक्ष हर पल विकल रहता। हर नयी बार, किसी और ही प्रिया के, गाढ़तर गहनतर सौन्दर्य और प्यार को पाने के लिये मेरी आत्मा सदा तरसती रहती। कुमार काल में पिता द्वारा निवासित किये जाने पर द्रविड़ देश की अनुपम सुन्दरी ब्राह्मण-कन्या नन्दश्री को अपनी बाहुलता बना लाया। कोसलेन्द्र की इकलौती बहन कोसलवती को ब्याह कर मैंने गगा-यमुना के दोआब की सौंधी हरियाली माटी को आलिंगनबद्ध करने का सुख पाया। ऊपर से दहेज़ में पाये काशी-कोसल के एक विशाल भूखण्ड पर मेरा विजय ध्वज भी गड़ गया। हर भूमि और उसका सारांशिनी सुन्दरी को अंकस्थ करने का सुख मैं एक साथ पाता चला गया। उज्जयिनी की जनपद-कल्याणी पद्मावती का हृदय अपने रूप और प्रताप से जीत कर, उसे मैंने राजगृही में ला बसाया। मालवे की उस परम मदुला काली लचीली माटी में अपने तेज को सींच कर, उसकी कोख में Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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