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'सब कुछ जान कर भी, मेरी आत्मेश्वरी, तुमने मुझे अविकल्प पाताल में फेंक दिया?'
'ताकि आप वहां आ सकें, जहाँ मुझसे अचूक मिलन सम्भव है। केवल मात्र जहाँ आपका स्वक सिद्ध हो सकता है।'
वह तुम्हारे और मेरे बीच न होकर अन्यत्र कहाँ सम्भव है ?'
'आपके और मेरे बीच पूरे संसार-चक्र का पर्दा पड़ा है, महाराज । हमारे सीने सट कर आरपार गुंथ जायें, तब भी उनके बीच जरा, मृत्यु, रोग, विछोह, देश-काल की अलंध्य खाइयाँ फैली पड़ी हैं।'
___. . मैं खड़ा नहीं रह पा रहा, अम्बे ! तुम्हारे अतिरिक्त अब लौटने को कोई स्थान नहीं छूटा। तुम बहुत निर्मम हो रही हो।'
इससे अधिक ममता क्या , आपको, सम्राट, कि आपको अन्तिम विछोह की वेदना से बचा लेना चाहती हूँ।'
'अर्थात् . . . ?'
'यही कि आप मुझे वहाँ मिलें, जहां फिर बिछुड़न नहीं, जहाँ सौन्दर्य का क्षय नहीं। जहाँ स्वप्न टूटता नहीं, अन्तिम रूप से साकार होता है।'
"कहाँ है वह स्वप्न-भूमि, भगवती ?' 'ऋजुबालिका नदी के तट पर · · !'
. . हठात् एक अफाट यवनिका हमारे बीच पड़ गई। मैं उलटे पैरों लौट कर अन्धकार के जाने किन अतल पातालों में उतराता चला गया। . . महावीर, तुमने मेरा अन्तिम आश्रय भी तोड़ दिया ! मेरी मनोमणि को भी तुमने सदा के लिये चूर-चूर कर दिया। मेरे अन्तरतम स्वप्नद्वीप की शैया के चरम विराम से भी तुमने मुझे वचित कर दिया। तुम रहो, या मैं रहूँ, ऐसी शर्त लग गई है। हम दोनों एक साथ अस्तित्व में दो हो कर नहीं रह सकते, नहीं रह सकते । ..
तुम सच ही कहते हो, महावीर, श्रेणिक सौन्दर्य और प्यार का प्यासा है। अपनी उस चिरन्तन प्यास की अतृप्ति से तड़प कर ही, वह दिग्विजय और साम्राज्य-स्वप्न में पलायन करता रहा है। बेशक, अपने वाहबल और पराक्रम से मैंने कुशाग्रपुरी के छोटे से पैतृक राज्य को, वर्तमान आर्यावतं के सर्वप्रथम साम्राज्य में परिणत कर दिया। उज्जयिनी के दुर्जय चंडप्रबोत को भी अपने शूरातन से आतंकित कर दिया। तब पारसिक देश का दुर्दान्त शासानुशास भी मेरी मैत्री के लिये लालायित हो गया। फलतः
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