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श्रेष्ठि ने अभिवादन पूर्वक देवी के पास सन्देश भेजा, कि वे एक ऐसा रत्न देवी को भेंट करने लाये हैं, जो हजारों वर्षों में एकाध बार ही पृथ्वी पर प्रकट होता है। समय और अवकाश के व्यवधान जिसकी विभा में व्यर्थ हो जाते हैं। देवी आज्ञा दें, तो रत्न-श्रेष्ठि वह निधि लेकर सेवा में प्रस्तुत हो ।
इस बीच की लम्बी अवधि में पराक्रम, प्रताप, पुरुषार्थ, रूप, रत्नकांचन, कीर्ति, ऋद्धि-सिद्धि सब देवी के बन्द कपाटों पर टकरा कर पराजित लौट गये थे। किन्तु आम्रपाली का द्वार न खुल सका था। लेकिन आज यह क्या हुआ कि देवी ने श्रेष्ठि सागरदत्त को भेंट की अनुज्ञा दे दी।
: शीतल किरणों से आविल मर्कत और मुक्ताफल की शैया में देवी आम्रपाली एक उपधान पर सीना टिकाये अधलेटी हैं। विपुल आलुलायित कुन्तलों तले, उदास सौन्दर्य की अपूर्व मोहिनी देख, श्रेष्ठी विकल-विव्हल हो आये। बन्धूक फूलों-सी रतनारी मदिरा का चषक, उस चेहरे की सान्ध्य विभा तले, पन्ने की चौकी पर अछता पड़ा था। उन बड़ी-बड़ी कटावदार आँखों में बिन पिये ही एक अगाध खमारी मचल रही थी।
'ताम्रलिप्ति के रत्न-कलाधर का स्वागत है !' 'आभार, कल्याणी !' 'आप के अलभ्य रत्न को देख सकती हूँ ?' 'प्रस्तुत है, देवानुप्रिये।' 'ओ· · · यह तो मनस्कान्त मणि लगती है। हमारे पास यह है। . . '
और देवी ने अपने हृदय पर झूलते एक बहुत महीन पर्तीले दूधिया रत्न की और संकेत किया। फिर बोलीं :
लेकिन यह हमारा मन न थाह सका, श्रेष्ठि ! मनोमणि रत्न से . परे है।'
'क्षमा करें, भगवती, मेरा यह रत्न मनस्कान्त नहीं, अन्तरिक्ष-वेध चिन्तामणि है।'
'इसकी सामर्थ्य ?'
'इसमें दृष्टि केन्द्रित करने पर आप, जब चाहें देश-काल में कहीं भी अवस्थित अपनी मनोकाम्य वस्तु या व्यक्ति को देख सकती हैं।'
___ क्या मैं इसी क्षण इसमें, मगध की भूमि पर निष्कम्प खड़े अर्हत महावीर को देख सकती हूँ ?'
'यदि वे सच ही आपके अनन्य काम्य और दर्शनीय हों!'
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