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क्या, जो किसी भी क्षण मेरे गाढ़तम प्रणयालिंगन में भी विस्फोटित हो सकता है । जो मेरे प्राणों की परमेश्वरी चेलना के सीने में शेषशायी विष्णु की तरह अपनी शाश्वत नागशैया बिछाये लेटा है, उससे बच कर मैं आखिर कहाँ जा सकता हूँ ।
- लेकिन आज कहीं चले जाना होगा । मगध की सीमा को अतिकान्त किये बिना आज चैन नहीं । ' लेकिन मगध की सीमा ही जो हाथ नहीं आ रही । लग रहा है, कि भूगोल और इतिहास से निर्वासित कर दिया गया हूँ। तब पराक्रम, विजय और साम्राज्य का क्या अर्थ रह जाता है ?
'लेकिन साम्राज्य से बड़ी चीज़ है मेरा स्वप्न । मेरा सौन्दर्य स्वप्न । वैशाली नहीं. आम्रपाली ! ओ मेरी स्वप्न, तुम कहाँ हो इस क्षण, क्या कर रही हो ? निश्चय ही तुम भी भूगोल और इतिहास से बाहर हो आज की रात । ऐसा सौन्दर्य भूगोल, खगोल और इतिहास का बन्दी हो कर कैसे रह सकता है ? और मैं भी उससे निष्क्रान्त हूँ इस क्षण । मैं आता हूँ, मैं आ रहा हूँ, मैं आ रहा हूँ
इस दौरान कितने न छुपे वेशों में जाने कहाँ-कहाँ भटकता फिरा हूँ। जिसे अपना ही मुँह देखना अब अच्छा नहीं लगता, ऐसा पराजित सम्राट औरों को अपना मुँह कैसे दिखाये । अनेक तरह के रूपों और वेशों में अपने को छुपा कर और अदल-बदल कर ही तो इन दिनों जीना सम्भव हो रहा है । इस क़दर छिप गया हूँ अपने ही आपसे भी, कि मगध का अप्रतिम राजपरिचक्र भी अपने खोये सम्राट को खोजने में हार मान बैठा है।
- वैशाली की एक विलास - सन्ध्या में, ताम्रलिप्ति के किसी रत्न श्रेष्ठ का रथ, देवी आम्रपाली के सप्तभूमिक प्रासाद के सामने आ कर रुका । श्रेष्ठि ने पाया कि महल बेशक अब भी असंख्य दीपमालाओं और रत्न-विभाओं से जगमगा रहा है, लेकिन देवी अपने लोहिताक्ष-जटित रत्न - वातायन पर नहीं आयी हैं। उसके शून्य मेहराब में केवल एक शतदीप आरती का नीराजन झूल रहा है । मानो किन्हीं अदृश्य कोमल ऊँगलियों के पोरों पर से इस आरती की जोतें उजल रहीं हैं। किसकी प्रतीक्षा में ?
• और ठीक वातायन के नीचे के भव्य रत्न - शिल्पित सुवर्ण द्वार के कपाट मुद्रित हैं । ताम्रलिप्ति के रत्न श्रेष्ठ सागरदत्त का चित्त यह दृश्य देख कर उदास हो गया। पूछताछ करने पर उन्हें पता चला कि एक अर्से से इधर देवी आम्रपाली अस्वस्थ हैं । वे किसी से मिलती नहीं, वातायन पर सान्ध्य - दर्शन भी नहीं देतीं । उनके द्वार अतिथियों के लिये बन्द हो गये हैं !
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