________________
२५९
काही अपहरण कर लिया है । अश्रुतपूर्व है यह घटना इतिहास के पटल
पर ।
मैं तुम में अपना प्रतिस्पद्ध, प्रतिद्वंद्वी खोज रहा था, महावीर ! मगर तुम कुछ इतने अनिरुद्ध, खुले और उत्सर्गित हो हर शै के प्रति, कि तुमसे कोई आख़िर कैसे मुक़ाबिला करे । जो आजान अपनी भुजाएँ निश्चिन्त ढाल कर, निस्तब्ध खड़ा है, उस पर अपने बाहुबल को कहाँ, कैसे आज - माया जाये ? तलवार की धार पर ही जो हर क्षण चल रहा है, उसका वध जगत की कौन-सी तलवार कर सकती है ?
अजीब फ़ितरती है तुम्हारी हस्ती, ज्ञातृपुत्र काश्यप ! तुम बचाव की लड़ाई नहीं लड़ते । तुम शत्रु के आक्रमण की प्रतीक्षा नहीं करते । तुम स्वयम् ही प्रलय के पूर की तरह मेरी भूमि में धँसते चले आये हो । बेरोक, दुर्दाम, अनिर्वार । ओ दुर्दण्ड आक्रमणकारी, मेरी धरती के गर्भ में तुम एक ध्रुव - कील की तरह ठुक कर अटल खड़े हो गये हो, और देखता हूँ कि मगध पर सर्वग्रासी आक्रमण हुआ है। तुम्हारे अविचल चरण-युगल की धँसान से मगध का साम्राजी सिंहासन डोल रहा है । राजगृही की देवरम्य प्रासाद-मालाओं के ऐश्वर्य में भीतर ही भीतर ज्वालामुखी धधक रहे हैं । चारों ओर अशनिपात, उल्कापात, ध्वंस और विनाश का दृश्य देख रहा हूँ ।
अपने इस 'मैं' को ठहराने के लिये कहीं कोई जगह बच नहीं सकी है । अस्तित्व और अस्मिता के सारे अवलम्बन चूरचूर हो गये हैं। जिस मेरे 'मैं' को ही मुझसे छीन लिया, उससे बड़ा मेरा शत्रु और कौन हो सकता है ? कंस के जन्मजात काल कृष्ण का ख्याल आ रहा है । लेकिन मेरी कठिनाई उससे आगे की है। यह ऐसा विकट शत्रु है, जो मुझे मार कर सन्तुष्ट नहीं हो सकता, यह मुझे जिन्दा पकड़ कर अपने भव्य सुन्दर सीने पर कुचल देना चाहता है । अपनी एक चुटकी में यह मुझे शून्य कर देना चाहता है । आह, इस दुर्वार पराक्रान्त शत्रु में कैसे जूझा जाये, जो नितान्त अक्रिय हाथ ढाले, कायोत्सर्ग में खड़ा है । लड़ने के कोई लक्षण नहीं, मगर हर पल मुझे युद्ध के लिए ललकार रहा है ।
महावीर, क्या इसी को तुम प्यार कहते हो ? तो फिर शत्रुता की शायद कोई नयी परिभाषा खोजनी होगी । कैसे कहूँ, कि तुम पाखण्डी हो । आरपार प्रज्वलित नग्न हुताशन को, पाखण्ड, झूठ, धूर्तता कहूँ, तो सत्य किसे कहना होगा ?
- मेरे सामने से तुम्हें हट जाना होगा, काश्यप, मैं तुम्हें सहन नहीं कर सकता। लेकिन अजीब लाचारी है, कि मैं अब तुम्हें अपनी आँख से एक क्षण भी ओझल नहीं होने दे सकता। ऐसे रहसीले सर्वस्वहारी शत्रु का भरोसा
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org