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________________ २५८ में ढल जाने दिया, तो लगा कि असह्य नागपाश में जकड़ गया है। . 'ओह, इन केशों की भंवराली मोह-रात्रि में अब प्राण को विश्राम नहीं। इस शालिनी के कुंवारे वक्षोज-गव्हर में जब पहली बार सर डुबोया था, तो लगा था कि यही मोक्ष है, यही मोक्ष है, मोक्ष यहीं है। · ·आज उसी वक्षमंडल के अधिक सवन और ओंडे गहराव में जब खो जाना चाहा, तो वह कितना ठंडा, उथला और नीरस लगा। कहाँ गई वह अगाधता, वह अथाह मार्दव, जिसमें एक दिन अमरत्व और अनन्त का आश्वासन मिला था। अपने राज्य के हर सीमान्त पर घोड़ा टकरा आया हूँ। एक अन्तहीन वीरानियत में सर पछाड़ कर लौट आने के सिवाय, उसमें क्या पाया। मेरे राज्य को चारों ओर से घेर कर जैसे अलंघ्य खाई खोद दी गई है । मानो किसी इन्द्रजाली का भेदी षड़यंत्र सर्वत्र चल रहा है। . ओह, वैशाली का यह राजपुत्र श्रमण ऐसा अनिर्वार आक्रमणकारी भी हो सकता है ? शत्रु के ही राज्य में आ कर जो इतना अटल और अभय खड़ा हो गया है, ऐसे योद्धा से कैसे पेश आया जाये? अकेला, निहत्था, मातृजात नंगा, नितान्त घात्य, हर प्रहार को समर्पित, जो सामने हर कभी प्रस्तुत और सुलभ है, उस पर प्रहार करने में भी अपने वीरत्व और क्षात्रधर्म का अपमान अनुभव होता है। एक दम निरीह, अकिंचन, अकिंचित्कर है यह युवान। यह कुछ नहीं कर रहा । केवल अकम्प, निर्द्वन्द्व खड़ा है। · · ·और मानो मेरा साम्राज्य-स्वप्न बादल के महलों की तरह बिखरता चला जा रहा है। अपनी प्रभुता और महत्ता को रेत-घड़ी में गिरती रज की तरह बेकाबू बह जाती देख रहा हूँ। · · कुछ थामने को न होगा, तो अभी-अभी गिर पडूंगा। और अपने अस्तित्व को महसूस करने की कशमकश में भागा हुआ अपने गोपन मंत्रणा कक्ष में जा कर, दीवारों पर टंगे विशाल नक्शों पर अपने साम्राज्य की सरहदों को टोहता हूँ। पर लगता है, कि मेरी घूमती ऊँगली के नीचे सरहदें टूट रही हैं, नक्शे सिमट रहे हैं। धरतियाँ काँप रही हैं, मंत्रणा ग्रह की दीवारें धड़धड़ा कर टूट रही हैं । अन्तःपुरों में आग लग गई है। शैया में सोयी सुन्दरी महारानियों के लवाण्य में से ही जैसे लपटें फूट पड़ी हैं। कैसे सर्वनाश की इन लपटों से बचना होगा? कहाँ जाना होगा? क्या करना होगा? अरे कहीं, कहीं भी तो इस विस्फोट से बचने को कोई दिशा नहीं छूटी। मंत्रीगण, आमात्य, सेनापति, सेनाएँ, अपने खोये हुए सम्राट को जंगलों, पहाड़ों, दरों, रुद्ध अरण्यों, कन्दराओं तक में खोज रहे हैं। पर उसका कहीं कोई पता या निशान नहीं मिल रहा। उफ्, कसा चुप्पा ख़ामोश खड़ा है, यह दुर्दान्त नग्न आक्रान्ता, ऋजुबालिका के इस एकान्त तट पर! · · ·और इसका यह बालक-सा मासूम, निर्दोष चेहरा इतना षड़यंत्री है, कि इसने मगध सम्राट Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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