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________________ २५७ है यह आदमी। ऐसा बलात्कारी , जिसने मेरी आत्मा पर कब्जा कर लिया है, फिर भी मेरी इच्छा-शक्ति को आजाद रक्खा है, कि मैं अपनी नियति का निर्णय करूं, मैं अपनी हर इच्छा पूर्ण करूं। मेरा सब कुछ लूट कर, यह सर्वस्वहारी अब मुझसे किस चुनाव की आशा करता है ? बोलो वर्द्धमान, तुम्हारे साथ कैसे सलूक किया जाये ? · · · मामने सुमेरु पर्वत भी आ कर मेरी राह रोक ले, तो उससे टक्कर ले सकता हूँ। उसे अपने बाहुबल से झंझोड़ कर उखाड़ फेंकने का दम रखता है श्रेणिक । कहीं कुछ ठोस ग्राह्य हो तो सामने, कि जिस पर अपनी पकड़ बैठा सकू, चोट कर सकू। लेकिन यह सुकुमार संन्यासी , सुमेरु से अधिक अटल और अभेद्य सघन होने पर भी, पकड़ाई से बाहर लगता है। अन्तरिक्ष से कोई कैसे टकराये, उसे कहाँ से पकड़ा जाये ? वज्र से अधिक ठोस है यह वैशालक । लेकिन वज्र से भिड़ कर, मेरा प्राणान्त भले ही हो जाये, वह तो टलने या गलने से रहा। इस असमंजस में पल-पल का जीना दूभर हो गया है। बैठ या लेट भी नहीं सकता। दिन-रात सतत चलता रहता हूँ। अविश्रान्त चंक्रमण के चक्र में घूम रहा हूँ। इस महल से उस महल, इस उद्यान से उस उद्यान, इस प्रमदवन से उस क्रीड़ा-पर्वत, इस प्रमदा से उस रमणी तक, इस सीमान्त से उस सीमान्त तक भटकता फिर रहा हूँ। ठहराव मेरी साँस को कुबूल नहीं। भीतर कोई मुकाम नहीं। पैर टिकना भूल गये हैं । दिवा-रात्र अविश्रान्त बेचैन चल रहा हूँ, चल रहा हूँ, चल रहा हूँ। किसी प्रमदा का रूप मुझे नहीं रोक पाता। किसी रानी की समर्पित गोद मुझे समा या सहला नहीं पाती। अभय की माँ महारानी नन्दश्री कई महीनों से तीखे पत्थरों की शैया पर सो कर मुझे विरमाने और पिघलाने को दारुण तप कर रही है। मेरे सर्वस्व की स्वामिनी चेलना, आज कितनी परायी और दूर लगती है। जिस चेलना की एक चितवन पर मेरा जीवन और मरण तुलता रहता था, उसकी छाया तक से आज मैं कतराता हूँ। उसके उस दिव्य उज्ज्वल मुख-मण्डल में मुझे अपना काल दिखाई पड़ता है। . उसके उन उशीर शीतल केशों में मुझे कई छुपे षड़यन्त्रों की गन्ध आती है। उसकी उस महीन दर्दीली आवाज़ की विदग्धता मुझे हर पल प्रवंचित करतीसी लगती है। उस आधी रात चारों ओर से सर्वथा निराश हो कर, बरबस ही सालवती के नीलकान्ति प्रासाद में चला गया था। हरे पन्नों की आभा से छाये उसके शयन की शीतलता में आदिम अजगरों का आतंक छाया दीखा। • . काँपते-थरथराते, अपने लड़खड़ाते शरीर को जब सालवती की फैली बाँहों Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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