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तुम रहो या में रहूँ
मैं हूँ कि नहीं हूँ ? अपने होने पर ही सन्देह करने लगा हूँ । क्या वर्द्धमान के होने की यह शर्त है, कि मैं न रह जाऊँ ? लेकिन ऐसा तो नहीं लगता कि वह किसी शर्त या दावे के ज़ोर पर क़ायम है। इतना बेशर्त आदमी मैंने आज तक नहीं देखा । लेकिन फिर भी अजीब है, कि एक शर्त-सी लग गई है, कि वर्द्धमान को स्वीकार कर के ही मैं अस्तित्व में रह सकता हूँ ।
fafaa है यह विदेह-वंशी, कि कहीं कोई कोण या धार इसमें है ही नहीं, कि जिससे टकराया जा सके। लेकिन फिर भी इसमें कोई ऐसी अदृश्य और सूक्ष्म धार है, कि आँख तक उठाये बिना, यह निमिष मात्र में तह-दर-तह मेरे समस्त को काट-छाँट कर रख देता है । कोई ऐसा पानी और हवा से भी अधिक महीन फल है, जो अपने मनचाहे ढंग से मुझे तराश कर, मेरी कोई नयी ही आकृति उकेर देता है । रह-रह कर अपनी स्थापित पहचान ही हाथ से चली जाती है। श्रेणिक के नाम और रूप के साथ अपनी तदाकारिता को महेसूस करने में कठिनाई होती है ।
या तो इन नग्न श्रमण को सामने पाकर ऐसी अभेद्य कठोरता से मुक़ाबिला होता है, कि जिससे टकराने में अपने चूर-चूर हो कर समाप्त हो जाने का अचूक ख़तरा अनुभव होता है । या फिर ऐसी अव्याबाध कोमलता सम्मुख होती है, कि टकराव या संघर्ष को सम्भव ही नहीं होने देती । एक ऐसा विशाल कमल, जो वृहत से वृहत्तर होता हुआ, मेरे समस्त को बरबस अपने में समाहित कर लेता है, और निखिल के आरपार अपनी पंखुड़ियाँ फैलाता चला जाता है । एक ऐसा कोणाकार तीखा पर्वत शृंग जो मुझे आपाद मस्तक भेद कर, अपनी ही तरह अभेद्य कठोर और निश्चल बना देना चाहता है ।
और तिस पर मुसीबत यह है, कि मैं काल के किसी आखिरी तट पर अकेला स्वयम् होने को छूट जाता हूँ । चुनौती होती है सामने, कि अपने को पहचानूं । अजीब है यह व्यक्ति कि जीने भी नहीं देता, मरने भी नहीं देता । जो हूँ, वह नहीं रहने देता, जो होना चाहता हूँ, वह नहीं होने देता, और समाप्त हो जाने की छुट्टी भी नहीं देता । अपूर्व भयंकर और ख़तरनाक़
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