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· · 'हठात् एक दिन लगा, कि सच ही मगध की हवाओं का रुख बदल गया है। पंचशैल के आकाशवेधी शिखर झुक गये हैं। जान गयो, कि तुम आ गये हो । · · इन्हें ले कर, तुम्हारे निकट आ उपस्थित हुई। : तुम्हारा वह निरंजन अवधूत रूप देख कर एक अकथ आनन्द-वेदना से प्राण हाहाकार कर उठे। पर हाय, तुम्हारी एक चितवन के योग्य भी न हो सकी। मानो कि बोले : 'नितान्त अकेली हो कर आओ, चेलना !'
.. उस तरह भी आ कर, पंचशैल की तलहटियों में कितनी न बार तुम्हारे पद-नख के सुमेरु पर अपना माथा पछाड़ा। पर तुम एक के दो न हो सके। सर्वस्व छीन कर भी तुम्हें चैन न आया। सारे महलों और कक्षों के, सारे कपाट तुमने तोड़ दिये। तुम्हारी चरण-धूलि पाने को मगध का साम्राजी सिंहतोरण धूल में लोट गया। · ·चेलना और श्रेणिक के बीच तुम नंगी तलवार की तरह अटल खड़े हो गये।
बोलो, अब और क्या चाहते हो? . . .
वैशाली को पीठ दे कर पीछे छोड़ आये हो । मगध की भूमि पर अन्तिम रूप से आ खड़े हुए हो।
जम्भक ग्राम के निकट, ऋजु-बालिका नदी के तटवर्ती जीर्ण उद्यान के पास, श्यामाक गाथापति के शालि-क्षेत्र में, सघन शाल-वृक्ष के तलदेश में, गोदोहन मुद्रा में, जानू पर जानू मोड़, ऊपर नीचे बँधी मुट्ठियों से यह कोन महाकाल-पुरुष कामधेनु पृथ्वी के स्तनों को अविचल अंगुष्ठों से दबा कर, अन्तिम रूप से उसका दोहन कर रहा है ? ___.ऋजु-बालिका नदी की लहरों पर लहराती तुम्हारी तूफ़ानी अलके चुपचाप दूर से देख आई हूँ। - काल-वैशाखी की पानी भरी आँधियां, पंचशैल के मूलों और वन-कान्तारों । के अंधेरों को झंझोड़ रही हैं। .
( . . 'मगधेश्वर श्रेणिक का दिशान्तों तक कहीं पता नहीं है । और चेलना विपुलाचल के काँपते शिखरों पर, केवल मात्र आँधी का उत्तरीय ओढ़े,
और तड़कती दामिनी की कंचुकी धारण किये, किसे रो-रो कर पुकारती हुई फेरी दे रही है।
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