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________________ सम्मुख आ कर अपना परम गोपन अवगुण्ठन या आँचल हटाने को विवश न हो जाये, यह कैसे सम्भव था ? २५४ एक 'नेति नेति' की मर्मभेदी शलाका से, क्रीड़ा - कौतुक और खेल - खेल में ही तुम मेरी चेतना के अन्तरतम कुंचुकि-बन्ध और नीवि-बन्ध खोलते चले गये थे । मगध और वैशाली का द्वंद्व तो क्या, लोक के तमाम संघर्षो के ध्रुवों को तुमने शतरंज की समाप्त बाजी की गोटों की तरह व्यर्थ करके लुढ़का दिया, और शतरंजी उलट कर चुपचाप मुस्कुरा दिये। संसार के सारे खेल को चुटकी मात्र में ख़त्म कर के, तुमने आँखों में आँखें डाल कर मुझे अंतिम रूप से उच्चाटित कर दिया । अपने नारीत्व और मातृत्व की भूमि को फिर भी मैं कस कर पकड़े रही । और सम्राट से मिलने आने के बहाने, तुम्हें राजगृही आने का आमन्त्रण दिया । मानो कि अपने अनजाने ही मेरे भीतर की प्रकृति ने उस व्याज से अपनी अचूक मोहिनी सत्ता के परिचक्र में तुम्हें आमंत्रित कर, अपने साम्राज्य में तुम्ह क़ैद करना चाहा था । समाप्त चौसर के फिर लुढ़क कर सामने आ पड़े ढीठ पासे को एक चुटकी से दूर फेंक देने की तरह, तुमने सम्राट को हमारे बीच से हटा दिया । उनसे मिलने आने की बात पर तुम बोले कि : 'नहीं, ठीक समय पर वे ही मेरे पास आयेंगे ।' 'अब मानो मगध में कोई सम्राट नहीं रह गया था, केवल सम्राज्ञी अपने महल में अकेली छूट गई थी । और ठीक अपनी उस स्वायत्त भूमिका पर तुमने हँस कर सीधे अपनी अन्तिम चाल चल दी थी : 'मेरे साथ चलोगी, मौसी ?' .. 'कहाँ· · · ?' 'जहाँ मैं ले जाना चाहूँ ।' 'तब क्या न आना मेरे वश का होगा, मान ! ' 'तो जानो मौसी, एक दिन मैं तुम्हें लिवा ले जाने को राजगृही आऊँगा ।' और उसके बाद का तुम्हारा अति सूक्ष्म, अदृष्ट भ्रूभंग कितना प्राणहारी था, कैसे बताऊँ । अस्तित्व में रह पाने की विवशता से विकल हो कर, तुम्हें अपनी छाती में सदा को बाँध लेने के लिये उमड़ पड़ी थी। पर हाय, अपनी बाँहों में तुम्हें घेर सकूं, उसके पहले ही, तुम जाने कहाँ चम्पत हो गये थे 1 उसके बाद, सब-कुछ के बीच रहते हुए भी, इन बारह-पन्द्रह वर्षों में, अस्तित्व में रह पाना कितनी पीड़क कसौटी रहा है मेरे लिये, सो तुम्हारे सिवाय और कौन जान सकता है । रातो-दिन का भेद भूल कर सारी मर्यादाएँ तोड़ कर चाहे जब राजगृही के चैत्य -काननों में, तुम्हें टेरती फिरी हूँ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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