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________________ २५३ है ? मगध और वैशाली के संघर्ष से अपरिचित तो नहीं थी। · · चाहती तो उस रात अपनी छाती में, वैशाली पर तनी इनकी तलवार को सदा के लिये गला दे सकती थी। पर इनकी अभीप्सा और इनके साम्राज्य-स्वप्न को तोड़ने में मुझे अपनी हार, और अपनी ही आसामर्थ्य अनुभव हुई। बिना किसी माँग और शर्त के अपने को निःशेष दे देने पर जो साम्राज्य प्राप्त हो सकता है, उससे कम पर, तुम्हारी मौसी कैसे अटक सकती थी, महावीर ? अपने को अचूक और सम्पूर्ण दे कर पल भर को स्पष्ट साक्षात्कार हुआ था, कि सम्राज्ञी केवल मगध की नहीं, सत्ता मात्र की हो गई हूँ। सकल चराचर की माँ होने का गंभीर गौरव और मान मेरे अंग-अंग में उमड़ आया था । पर उस परम अनभूति को जीवन के पल-पल के यथार्थ में जीना क्या इतना सरल हो सकता है ? किन्तु प्यार, सौन्दर्य, वैभव, ऐश्वर्य, भोग, सत्ता, सिंहासन - सभी का अपार सुख दिन-दिन कम पड़ता गया था। ना कुछ समय में ही उस सब की सीमा नग्न सामने आ कर खड़ी हो गई थी। भीतर के मर्म में एक ऐसा रिक्त और अभाव अनुपल टीसता रहता था, कि जिसकी पूर्ति बाहर के देश और काल में कहीं सम्भव नहीं लगती थी। ___ बचपन से ही जिस चरम अभाव की वेदना मेरे भीतर निगूढ़ रूप से कसक रही थी, और मेरे कौमार्य की रातों में जिसकी बेचनी ने जीना दूभर कर दिया था, वह जगत के सारे सम्भाव्य सुखों से गुजर कर, अब नितान्त अनाथ हो उठी थी। इन्हें कभी नहीं लग सका, कि कहीं से कम पड़ी हूँ, या मेरा जो कहीं अन्यत्र भटका हुआ है। पर तुम्हारे समक्ष तो यह स्वीकार कर ही सकती हूँ, महावीर, कि सम्राट के आलिंगन में हो कर भी चेलना उससे बाहर थी, रमण की शैया में हो कर भी वह रमणी वहाँ नहीं थी। हाँ, वह शैया भले ही उसके भीतर की एक तरंग मात्र हो रही हो। राजगृही के साम्राजी राजमहालय में चेलना सर्वत्र हो कर भी, कहीं नहीं थी, यह तुम्हारे सिवाय कौन जान सकता है ? . . . उस दिन जो बहुत बेचैन हो कर, आखिर तुम्हारे पास नन्द्यावर्त में चली आई थी, उसके पीछे अपनी यह अन्तिम अभाव की वेदना ही प्रधान थी। मगध और वैशाली के संघर्ष की पीड़ा भी कम नहीं थी। पर वह भी मानो लोक के प्राणि मात्र के बीच चिर काल से चल रहे राग-द्वेष, मोह-मात्सर्य, युद्ध-संघर्ष से संत्रस्त एक माँ की महावेदना का अंश मात्र थी। सो वह समस्या तो एक निमित्त और माध्यम भर थी, तुम तक आने के लिये । अपने अन्तरतम के चिरन्तन् सन्ताप को सीधे आ कर तुम्हारे सामने खोल देना, रमणी-माँ के स्वभाव में सम्भव नहीं था। . . . पर तुम हो, मान, कि सृष्टि का कौन रहस्य तुम्हारी आँख से बचाया जा सकता था। और उस सृष्टि की उत्स और चरम ग्रंथि तारी तुम्हारे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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