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________________ २५२ 'यह पूछो, मां, कि कौन विद्या नहीं जानता?' 'मैं धन्य हुई तुम्हें पा कर, अभय !' 'माँ' . . !' 'तो तुम मेरा हरण करने को वैशाली आये ! तुम अपनी अनजान, स्वप्न. कल्पा मां का हरण कर लाये। तुम्हारे इस पुत्रत्व को कैसे दुलारूँ ?' 'माँ का हरण, आर्यों की मर्यादा में वजित न हो, तो वह करके मैं गौरव ही अनुभव करता हूँ। पर सच तो यह है, कि मैं मगधेश्वर की मनोमणि, मगध की भावी सम्राज्ञी का हरण करके लाया हूँ। आपको कोई आपत्ति तो नहीं।' अत्यन्त निगूढ़ लज्जा से पसीज कर मैं अपने में ही मर रही। फिर उमग कर बोली : वह हरण तो इतिहास में नया नहीं, अभय अपूर्व यह है, कि मेरा अन्य कोख से जन्मा बेटा, अपनी मनचीती माँ को बलात् उड़ा लाया है।' 'बलात कहोगी, माँ ? अभय ब्राह्मणी का गर्भजात है, और क्षत्रिय का वीर्यांशी है । बलात् नहीं, सूर्यात कह सकती हो !' 'सूर्य का तो बलात्कार ही चेलना को प्रिय हो सकता है। मैं नारी हूँ, अभय राजकुमार !' 'माँ' . . !' 'बेटा' . . !' · · · कितनी दूर चली आई हूँ, अपने अतीत जीवन में । इससे एक अमोल प्रतीति हो गई । पूनम की उस पूर्णचन्द्रा रात में, महारानी होने से पहले ही माँ हो गई थी। प्रभंजन पर आरोहण करते उस रथ में स्पष्ट अनुभूति हुई थी, कि अभय जैसे बेटे को पा कर, पृथ्वी पर कुछ भी पाना शेष नहीं रह गया है। प्रसव-पीड़ा के बिना ही पाया यह पुत्र, सूर्यांशी कर्ण से कम नहीं लगा था। प्रतीत हुआ था कि यह साथ खड़ा है, तो मौत भी मुझे सामने पा कर मेरी गोद का छौना हो रहने को विवश हो जायेगी। तब राजगृही के राजमहालय में आ कर, नया तो कुछ भी पाने को शेष नहीं रह गया था। राजेश्वरी की सोहाग-शया और सम्राज्ञी का सिंहासन भी, मानो संसार के अन्तहीन संघर्ष और संत्रास से पीड़ित और भयभीत, मेरे वक्ष में आ दुबके थे। उस पहली ही रात जो 'इनका' पागलपन देखा, तो नितान्त आत्महारा हो गई। क्या कोई सम्राट भी इतना अकिंचन, निरीह और नादान हो सकता Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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