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________________ २५० ठीक नियत समय पर, गुप्तवेश में, अपना रथ स्वयम् ही हॉकती हुई 'चन्द्रोदय उद्यान' में, मानो ठीक नियत स्थल पर यंत्रवत बापोआप ही जा पहुंची। एक भव्य रत्न-जटिल रथ, चारों ओर रंगीन रेशमी यवनिकाओं से आवेष्टित, वहाँ खड़ा था। और उसकी वल्गा थामे एक राजपुरुष पास ही खड़ा था। चित्रपट का श्रेणिक न हो कर, वह ठीक उसको प्रतिच्छबि लगा। रथ से उतर कर दिग्भ्रमित-सी उसके सम्मुख जा खड़ी हुई। शब्द शक्य न हो सका। किसी षड्यंत्र के आतंक से मैं कॉप-काँप उठी। . 'आश्वस्त हों देवी, मैं श्रेणिक नहीं, उनका ज्येष्ठ राजपुत्र अभय राजकुमार आपका अभिवादन करता हूँ।' 'और वे रत्न-श्रेष्ठि कहाँ हैं ?' अभय राजकुमार अनेक रूपों में एक साथ खेलता है, कल्याणी ! उसको इस बदनामी से आर्यावर्त का कौन-सा अन्तःपुर अपरिचित है !' मेरे पैरों के नीचे की धरती सकती लगी। 'आप यहाँ कैसे, भन्ते यवराज ? आपकी साहस-कथाओं से मैं अपरिचित नहीं । - ‘पर यह रहस्य मैं बुझ नहीं पा रही।' 'मैं आपको लिवाने आया हूँ, भारतेश्वरी !' भारतेश्वरी? पहेलियाँ न बझायें, भन्ते यवराज । · · मैं · · मैं अकेला हूँ। आप मुझ से क्या चाहते हैं ?' 'अब आप अकेली नहीं, राजेश्वरी। आर्यावर्त का एकमेव चक्रेश्वर आपके दायें कक्ष में खड़ा है !' 'हाय, यह क्या सुन रही हूँ मैं ? हे भगवान, मैं कहाँ आ गई ?' 'आप ठीक अपनी नियत जगह पर आई हैं, देवी । मगधेश्वर का आधा चक्रवर्ती सिंहासन, सम्राज्ञी चेलना की प्रतीक्षा में है।' 'नहीं नहीं - यह सब सुनने को मैं नहीं आई।· · · मैं चली, मुझे क्षमा करें, भन्ते गजपुत्र ।' 'वैशाली लौटने का रास्ता अब बन्द हो चुका, मगधेश्वरी । यह नियति है, देवी। यह टल नहीं सकती। आओ माँ · · !' - मेरी आँखों में एक बिजली-सी कौंधी। विपल मात्र में ही एक बलशाली, किन्तु अति कोमल भुजा ने जैसे मुझे अधर, अनछुए ही उठा कर रथ की यवनिका में बन्द कर दिया। मानो कुछ हुआ ही नहीं । और सब-कुछ समाप्त हो गया। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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