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सुन कर मेरा चेहरा फूटती ऊषा-सा लाल हो आया । मेरी आँखें फिर उठ न सकीं । मैं मूर्तिवत स्तम्भित, बेहद नम्रीभूत हो रही ।
'आपका क्या प्रिय कर सकता हूँ, देवी चेलना ? आर्यावर्त की सौंदर्यशिखा चेलना की सेवा करके कृतार्थ होना चाहता हूँ ।'
अपना नाम एक अपरिचित दूर द्वीपवासी रत्नश्रेष्ठि के मुख से सुन कर
मेरी तहें काँप उठीं। वहाँ ठहरना दुष्कर जान पड़ा। पर जैसे किसी अपार्थिव सम्मोहन से कीलित मैं, वहाँ से हिल तक न सकी ।
'भन्ते श्रेष्ठी, आपके सम्राट अनन्य हैं, अप्रतिम हैं ।'
'सो तो हैं, कल्याणी । वैशाली की राजबाला का यह अभिनन्दन उन तक चौकस पहुँचा दूँगा ।'
'महानुभाव श्रेष्ठी, श्रेणिकराज की राजगृही, ऐसी कोई बहुत दूर तो नहीं । आपके दिग्विजेता सम्राट में मुझे कोई दिलचस्पी नहीं । पर क्या इस चित्रपट के श्रेणिक कुमार
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'निःसंकोच आज्ञा करें, देवी ।'
'क्या वे वैशाली के सीमान्त पर मुझ से मिल सकते हैं ? "
'आज की सूर्यास्त बेला में, श्रेणिक कुमार वैशाली के सीमान्त पर आपकी प्रतीक्षा में होंगें ! '
'तो क्या वे यहीं पर हैं ?"
'दिगन्त - विजेता श्रेणिक बिजली के घोड़े पर सवारी करते हैं, सुन्दरी । आपका संदेश उन तक पहुँच गया। वे मनोवेध विद्या के पारंगत हैं ।' तो वैदेही चेलना, ठीक सूर्यास्त के मुहूर्त में गंगा तट के 'चन्द्रोदयउद्यान' में उपस्थित होगी ।'
'आज पूर्णिमा है, देवी । ठीक सूर्यास्त और पूर्ण चन्द्रोदय के लग्न मुहूर्त में आपके श्रेणिक कुमार, आपके दर्शन की प्रतीक्षा में होंगे ।'
"हाय, निगोड़ी पृथ्वी फट क्यों नहीं पड़ी ! कैसे मैं इतनी निर्लज्ज हो गई, क्या-क्या मैं कह गई, कुछ सुध-बुध ही नहीं थी। कोई तीसरी शक्ति जैसे मुझ में से बोल रही थी। इतनी सम्मोहित, परवश, आत्महारा हो गई थी, कि अपने ऊपर मेरा कोई अधिकार ही नहीं रह गया था । कैसे मैं महालय लौटी, और कैसे वह सारा दिन बीता, मुझे मानो पता ही नहीं चल सको ।
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