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________________ २२७ आदेश प्राप्त हुआ है, कि वह कोसल के दासी- रानी पुत्र विडूढब से विवाह कर, श्रावस्ती के राजसिंहासन की जिनेश्वरी अधिष्ठात्री हो जाये । प्रभुताप्रमत्त शाक्य क्षत्रियों से अवमानित दास रक्त का वरण करके, वह अरिहन्तों के शाश्वत मुक्ति-यज्ञ को आगे बढ़ाये | 'कुछ बरस तुम्हारे नवम खण्ड के कक्ष में जाने का साहस न कर सकी । अब कभी-कभी चली जाती हूँ, तो देखती हूँ, कि वह रिक्त नहीं है, शून्य नहीं है एक अद्भुत सुखद उपस्थिति से वह पूरम्पूर भरा हुआ है । एक-एक वस्तु यथास्थान, कुछ इस तरह अक्षुण्ण और अटल है, मानो कि वे शाश्वती (इनिटी) में नित नवीन होती हुई विद्यमान हैं। हर चीज़ में जैसें आँखें खुल उठी हैं, और वे इतनी पूर्णता से मुक्त, आश्वस्त और परिपूरित हैं, मानो उनका भोक्ता उनके रेशे - रेशे में नित्य क्रीड़ाशील है । जब भी कभी एकाएक मन उचाट या उदास हो जाता है, तो तुम्हारे उस कक्ष में चली जाती हूँ । तुम्हारे स्फटिक सिंहासन के पायताने लेट जाती हूँ, और लगता है कि यह कौन लपक कर मेरी छाती के पास आ बैठा है, मानो कि मेरी छाती ही कट कर उसका एक टुकड़ा फिर उस पर आ लेटा है । अचानक, - फिर भी नवम खण्ड से नीचे उतरते-उतरते जाने क्यों मन में गहरे विषाद की कुँवारी जामुनी बदली छा जाती है। इतनी बेकल हो जाती हैं कि हाय इसी क्षण जन्मान्तर या लोकान्तर कर जाऊँ। जैसे यहाँ के इस परिचय और परिवेश में जी नहीं सकूंगी। हर चीज में से तुम्हारी याद उद्ग्रीव हो कर बोल उठती है, और मैं रो पड़ती हूँ। घंटों रोती रहती हूँ। और वह रुलाई ही जाने कब तुम्हें मेरी बाँहों में खींच लाती है । कोई शिकायत या अभियोग मन में नहीं है, फिर भी रह-रह कर एक प्रश्न जी में हूक उठता है । कि राह-राह, नगर-नगर, ग्राम-ग्राम, घाट-घाट, जंगल-जंगल, नदी-नदी, कण-कण और दिग्दिगन्त में परिव्राजन कर रहे हो । कि बारह वर्ष से अविराम, अविश्रान्त चल रहे हो । कि वैशाली को धूलि को भी कई बार अपने श्रीचरणों से धन्य कर गये । पर क्षत्रिय-कुण्डपुर की हिरण्यवती का तट कभी तुम्हारी अतिथि पगचाप से चौकन्ना न हुआ ? तुम्हारी परछाँहीं तक योजनों की दूरी से ही नन्द्यावर्त को टाल कर निकल गई। तुमने मध्यान्ह सूर्य - बेला की जलती पर्वत चट्टानों पर चढ़ना कुबूल किया, पर मेरी तरसती दरकती छाती के व्याकुल निवेदन को एक बार भी बूंद जाना, तुम्हें मंजूर न हो सका ? शायद इस लिए नहीं आये कि, जो द्वार तुम पार कर चुके थे, जो सीढ़ियाँ तुम उतर चुके थे, उनकी ओर लौट कर आना तुम्हारी निरन्तर पुरोगामी यात्रा के नक्शे में सम्भव नहीं था । शायद Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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